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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है। इसके तीन अध्याय क्रमशः शिक्षावल्ली (12 अनुवाक) ब्रह्मानंद वल्ली (9 अनुवाक) व भृगुवल्ली (10 अनुवाक) के नाम से प्रसिद्ध हैं। इसका संपूर्ण भगा गद्यात्मक है। शिक्षावल्ली नामक अध्याय में वेद मंत्रों के उच्चारण के नियमों का वर्णन है व शिक्षा समाप्ति के पश्चात् गुरु द्वारा स्नातकों को दी गई बहुमूल्य शिक्षाओं का वर्णन है। ब्रह्मानंद वल्ली ने ब्रह्मप्राप्ति के साधनों का निरूपण व ब्रह्म-विद्या का विवेचन है। प्रसंगवशात् इसी वल्ली में अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय व आनंदमय इन पंचकोशों का निरूपण किया गया है। इसमें बताया गया है कि ब्रह्म हृदय की गुहा में ही स्थित है। अतः मनुष्यों को उसके पास तक पहुंचने का मार्ग खोजना चाहिये, किंतु वह मार्ग तो अपने ही भीतर है। पंचकोश या शरीर के भीतर, अंतिम कोठरी अर्थात् (आनंदमय कोश) में ही ब्रह्म का निवास है, जीव जहां पहुंच कर रसानंद का अनुभव करता है। "भृगुवल्ली" में ब्रह्म -प्राप्ति का साधन तप व पंचकोशों का विस्तारपूर्वक वर्णन है। इस अध्याय में अतिथि सेवा का महत्त्व व उसके फल का वर्णन भी है। इसमें ब्रह्म को आनंद मान कर सभी प्राणियों की उत्पत्ति आनंद से ही कही गई है। प्राचीन काल में अध्ययन की समाप्ति के पश्चात् आचार्य अपने शिष्य को जो "सत्यं वद धर्म चर" आदि उपदेश दिया करते थे, वह सुप्रसिद्ध शिक्षावल्ली के ग्यारहवें अनुवाक में अंकित है। तैत्तिरीय प्रातिशाख्य - इस प्रातिशाख्य का संबंध यजुर्वेद "तैत्तिरीय संहिता" के साथ है। यह 2 खंडों में विभाजित है व प्रत्येक खंड में 12 अध्याय हैं। इस ग्रंथ की रचना सूत्रात्मक है। इस में सर्वत्र उदाहरण तैत्तिरीय संहिता से दिये हैं। प्रथम प्रश्न (या अध्याय) में वर्णसमानाय, शब्द-स्थान, शब्द की उत्पत्ति, अनेक प्रकार की स्वर व विसर्ग संधियों व मू_न्य-विधान का विवेचन है। द्वितीय प्रश्न में पत्वविधान, अनुस्वार, अनुनासिक, स्वरितभेद व संहितारूप का विवरण प्रस्तुत किया है। इस पर अनेक व्याख्याएं प्राप्त होती हैं जिनमें माहिषेयकृत “पाठक्रमसदन" सोमचार्यकृत "त्रिभाष्यरत्न" व गोपालयज्वा की "वैदिकाभरण" प्रकाशित हैं। इनमें प्रथम भाष्य प्राचीततम है। इसका प्रकाशन व्हिटनी द्वारा संपादित "जर्नल ऑफ दि अमेरिकन ओरीएंटल सोसाइटी" भाग 9, 1871। ई. मे हुआ था। 2. रंगाचार्य द्वारा संपादित व मैसूर से 1906 ई. में प्रकाशित ।। तैत्तिरीयब्राह्मणम् - यह "कृष्ण यजुर्वेदीय" शाखा का ब्राह्मण है। इसमें 3 कांड है। यह तैत्तिरीय संहिता से भिन्न न होकर उसका परिशिष्ट ज्ञात होता है। इसका पाठ स्वरयुक्त उपलब्ध होता है। इससे इसकी प्राचीनता सिद्ध होती है। प्रथम व द्वितीय काण्ड में 12 अध्याय (या प्रपाठक) हैं व तृतीय में 13 अध्याय हैं। कुल अनुवाक 308 हैं। तैत्तिरीय संहिता मे प्रतिपादित यज्ञों की विधि का विस्तारपूर्वक वर्णन है। इस में ब्राह्मण ग्रंथ के हेतु, निर्वचन, निन्दा, प्रशंसा, संशय, विधि, पराकृति, पुराकल्प, व्यवधारण, कल्पना, उपमान आदि सभी विषय आए हैं। इसके प्रथम अध्याय में अग्न्याधान, गवामयन, वाजपेय, सोम, नक्षत्रइष्टि व राजसूय का वर्णन है तथा द्वितीय अध्याय में अग्निहोत्र, उपहोम, सौत्रामणि, बृहस्पतिसव, वैश्वसव आदि अनेकानेक सवों का विवरण है। इसमें ऋग्वेद के अनेक मंत्र उद्धृत हैं और अनेक नवीन भी हैं। तृतीय अध्याय की रचना अवांतरकालीन मानी गई है। इसमें सर्वप्रथम नक्षत्रेष्टि का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है व सामवेद को सभी वेदों में श्रेष्ठ स्थान प्रदान किया है। मूर्ति व वैश्य की उत्पत्ति ऋक् से, गति व क्षत्रिय की उत्पत्ति यजुष से और ज्योति तथा ब्राह्मण की उत्पत्ति सामवेद से बतलाई गई है। ब्राह्मण की उत्पत्ति होने के कारण सामवेद का स्थान सर्वोच्च है। अश्वमेध का विधान केवल क्षत्रिय राजाओं के लिये किया गया है तथा उसका वर्णन बडे विस्तार के साथ है। पुराणों की कई अवतार संबंधी कथाओं के संकेत यहां मिलते हैं। वराह-अवतार का तो स्पष्ट उल्लेख भी है। इसमें वैदिक काल के अनेक ज्योतिष-विषयक तथ्य भी उल्लिखित हैं। इस पर सायण तथा भट्टभास्कर के भाष्य हैं। इसका प्रथम प्रकाशन व संपादन राजेंद्रलाल मित्र द्वारा कलकत्ता में हुआ था। (बिब्लिओथिका इंडिका में 1855-70 ई.)। आनंदाश्रम सीरीज पुणे से 1898 में प्रकाशित, संपादक एन्. गोडबोले। मैसूर में 1921 में श्री. श्यामशास्त्री द्वारा संपादित। तैत्तिरीय शाखा (कृष्ण यजुर्वेदीय) ले- वैशंपायन की शिष्य परंपरा में से एक का नाम तित्तिरि था। तित्तिरि का प्रवचन पढने वाले तैत्तिरीय कहते हैं। तैत्तिरीय संहिता के 7 काण्डों में, आठ प्रश्न, दूसरे, सातवें में पांच पांच, तीसरे, चौथे में सात सात और पांचवें, छटे में छः छः प्रश्न हैं। लौगाक्षिस्मृति में तैत्तिरीय संहिता के सात काण्डों के विषय-विभाग की विस्तृत व्याख्या मिलती है। तैत्तिरीय और कठों का आरम्भ से ही दृढ संबंध होता है। तैत्तिरीयों के दो भेद हैं (1) आखेय और (2) आत्रेय। तैसिरीय संहिता (कृष्ण यजुर्वेद)- आज कल कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा को सर्वाधिक महत्त्व है। इसकी संहिता दो संस्करणों में उपलब्ध है। :- (1) आपस्तम्ब (महाराष्ट्र के देशस्थ ब्राह्मणों में और दक्षिण भारतीयों में) और (2) हिरण्यकेशी (महाराष्ट्रीय कोंकणस्थ ब्राह्मणों में)। इस संहिता में 7 अष्टक या काण्ड हैं। प्रत्येक अष्टक में 5 से 8 अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय अनुवाकों में विभक्त है, अन्यत्र सर्वत्र भेद है। शुक्ल यजुर्वेद की कुछ बातों में साम्य छोड़ कर अन्यत्र अनेक मतभेद पाये जाते हैं। 4 और 5 काण्डों में पवित्र होमाग्नि का विषय वर्णित है। 7 वें में ज्यातिष्टोम और संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /131 For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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