SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कथाओं का उल्लेख किया गया है। भाषा शास्त्र की दृष्टि से भी इस में अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्य भरे हुए हैं। इसमें वसिष्ठ आश्रम और अनेक प्राचीन साम्राज्यों का वर्णन तथा ओंकार की तीन मात्राओं का वर्णन प्रथम बार मिलता है। गुजरात में इसका विशेष प्रचार है। - गोपालचम्पू (1 ) ले जीवराज कवि । महाप्रभु चैतन्य के समकालीन महाराष्ट्र-1 -निवासी। भारद्वाज गोत्रोत्पन्न कामराज के पौत्र । इसमें काल ने "श्रीमद्भागवत" के आधार पर गोपाल के चरित का वर्णन किया है। स्वयं कवि ने ही इस पर टीका भी लिखी है। इसका प्रकाशन वृंदावन से बंगलालिपि में हुआ है। (2) ले जीव गोस्वामी (श. 15-16 ) । वैष्णव परंपरा की रचना । www.kobatirth.org (3) ले किशोरविलास । (4) ले विश्वनाथसिंह । गोपालचरितम् - कवि पद्मनाभ भट्ट । गोपालपंचांगम् इस में (1) गोपालपटल (अंगन्यास, ध्यान, बिन्दुबीज, अंगमलादि रूप) (2) गोपाल- मन्त्रपद्धति (3) गोपालसहस्त्रनाम संमोहनतन्त्र में उक्त हर पार्वती संवाद रूप) (4) त्रैलोक्यमंगल गोपाल (सनत्कुमारसंहितान्तर्गत) (5) गोपालस्तवराज ( गौतमीतंत्रोक्त ) इन पांच विषयों का विवरण है। गोपालपूर्वतापिनी अथर्ववेद से संबंधित एक वैष्णवीय नव्य उपनिषद् | इसमें ब्रह्मा ऋषि, ब्रह्मा-नारायण एवं गोपी- दुर्वास के पृथक संभाषण के माध्यम से बतलाया गया है कि कृष्ण ही परब्रह्म है । - गोपालविरुदावली ले जीवगोस्वामी ई. 15-16 वीं शती। गोपाललीला ले- रामचन्द्र । गोपाल- लीलामृतम् ले म.म. कृष्णकान्त विद्यावागीश सन् 1810 में रचित । गोपालविजयम् - कवि - गिरिसुन्दरदास । गोपालार्चनाविधि ले- पुरुषोत्तमदेव । गोपालार्या ( काव्य ) ले- श्रीशैल दीक्षित गोपालोत्तरतापिनी यह एक नव्य वैष्णव उपनिषद् है। विषय :- दुर्वास- गोपी संवाद के माध्यम से कृष्णोपासना का उपदेश । मोक्षदायिका सप्तपुरियों में मथुरा को मूर्तिमान ब्रह्म, उसके चतुर्दिक बाहर वनों का अस्तित्व तथा उसमें अष्ट वसु, एकादश रुद्र, द्वादशादित्य, सप्तर्षि सप्तविनायक तथा अष्टलिंगों का निवास कहा गया है। ओंकार से जगत् की उत्पत्ति हुई है। उसकी चौथी मात्रा भगवान् कृष्ण है तथा रुक्मिणी उसकी आदिशक्ति है। आदिशक्ति ही प्रकृति है और उसका अन्य रूप राधा है। यह रहस्य नारायण ने ब्रह्मदेव को, ब्रह्मदेव ने - सनकादि मुनियों को, सनकादि मुनियों ने नारद को, नारद ने दुर्वासा को और दुर्वासा ने गोपियों को बतलाया । गोपालरहस्यम् ले मुकुन्दलाल । गोपीगीतम् कवि-गोपालराव अटरेवाले। चार सर्गों का लघुकाव्य । इसकी एकमात्र उपलब्धपाण्डुलिपि ग्वालियर के सिंधिया प्राच्य शोध संस्थान में है। इसका प्रकाशन ई.स. 1945 में ग्वालियर के आलीजाह दरबार प्रेस से किया गया। इसमें 156 पद्य हैं। रचना में श्रीमदभागवत् के रासपंचाध्यायी की छाया परिलक्षित होती है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गोपीचंदनोपनिषद् - गोपीचंदन का तिलक लगाने से मोक्षप्राप्ति और मृत्यु पर विजय प्राप्त होती है ऐसा इस उपनिषद् में कहा गया है। गोपीचन्दन की दूसरी व्याख्या भी इसी उपनिषद् में की गयी है। वह इस प्रकार है श्रीकृष्णाख्यं परं ब्रह्म गोपिकाः श्रुतयोऽभवन्। एतत्सम्भोगसम्भूतं चन्दनं गोपिचन्दनम् ।। अर्थात् श्रीकृष्ण परब्रह्म हैं । गोपी श्रुतियां हैं। कृष्ण और गोपी के सम्भोग से निर्माण हुआ चन्दन ही गोपिचन्दन है। यहां चन्दन का लाक्षणिक अर्थ है आल्हाददायक सुख । यह उपनिषद् वासुदेव द्वारा नारद को बतलाया गया है। गोपीदूतम् - ले- लंबोदर वैद्य । वैष्णव परंपरा का दूतकाव्य । गोभिलगृह्यसूत्रम् - गोभिल ऋषि द्वारा रचित । सामवेद के कौथुम तथा राणायनी शाखा के लोग इस गृह्य को मानते हैं। इसमें चार अध्याय हैं। इस ग्रंथ पर काल्यायन द्वारा कर्मप्रदीप नामक परिशिष्ट लिखा गया है। गोभिलस्मृति गोभिल गृह्यसूत्र पर कात्यायन द्वारा लिखा गया परिशिष्ट ही गोभिल स्मृति है। यह स्मृति गोभिल गृह्यसूत्र के स्पष्टीकरणार्थ लिखी गई है। इसमें तीन अध्याय हैं और उनमें श्राद्धकर्म नित्यकर्म, संस्कार आदि का निरूपण है। गोम्मटसार ले-लेमिचन्द जैनाचार्य ई. 10 वीं शती - गोमुखलक्षणम् ललितागमान्तर्गत ग्रंथ जपमाला के लिए गोमुख अर्थात् गोमुखी पांच प्रकार की बतलायी है। लाल, हरी, सफेद, नीली, चितकबरी। इससे सब मन्त्रों की सिद्धि की जाती है। वशीकरण मन्त्र की सिद्धि के लिये लाल, आकर्षण मन्त्र सिद्धि के लिये हरी, स्तम्भन और उच्चाटन मन्त्र की सिद्धि के लिए सफेद और मारण मन्त्र की सिद्धि के लिए नीली और मोहनमल की सिद्धि के लिए चितकबरी गोमुखी होनी चाहिए। वशीकरण में 9 अंगुल की, आकर्षण में 25, स्तंभन और उच्चाटन में 32 शत्रुनाशार्थ 15 अंगुल की गोमुखी होनी चाहिए। For Private and Personal Use Only गोरक्षकल्प - ले गोरखनाथ (गोरक्षनाथ ) ई. 11-12 वीं शती । गोरक्षगीता ले गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) ई. 11-12 वीं शती । संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 99
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy