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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६० संशयतिमिरप्रदीप । उत्तर-इसमे और प्रमाणों की आवश्यक्ता ही क्या है खास वह श्लोक ही कह रहा है कि जिनकी मांस वृत्ति है वे क्रूर देवता त्याज्य हैं और अन्य मतियों में देवताओं के लिये मांसव्यवहार प्रत्यक्ष देखा जाता है । यदि इतने पर भी यह बात न मानी जाय तो कहना पड़ेगा कि जिनसेनस्वामिको देवताओं की मांसवृत्तिके बताते समय गन्धहस्तमहाभाष्य, सर्वार्थसिद्धि, आदि शास्त्रों के उस प्रकर्ण का खयाल नहीं रहा होगा जहां पर देवताओं की मांसवृत्ति को उनकाअवर्णवाद बताया है। यह सब मन मानी कल्पना है। इसे एक तरह जिनवाणी का अनादर कहना चाहिये । पहले तो यह आश्रय था कि इन ग्रन्थों को भट्टारकों ने बनाये हैं परन्तु जब भट्टारको के ग्रन्थों को एक तरफ करके प्राचीन २ आचार्यों के बनाये हुवे प्रसिद्ध ग्रन्थों के प्रमाण दिये जाते हैं तो भी वही पहला का पहला दिन है। नहीं मालूम इस पवित्र जाति का आगामी और भी क्या होना है। शासन देवताओं का मानना केवल वे जिनशासन के रक्षक और धर्मात्मा है इसलिये अन्य धर्मात्माओं की तरह प्रतिष्ठादि महात्सवों में उनका आव्हाननादि किया जाता है । और कोई विशेष हमारा स्वार्थ नहीं है। जो केवल अपने स्वार्थ के लिये ही शासनदेवताओं का आराधन करते हैं वे देवता मूढ़ के अवश्य भागी हैं। ऐसा ही समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरंड में लिखा है वह भी पहले लिन आये हैं। प्रश्न-पूज्य तो जिनभगवान को छोड़ कर और कोई नहीं For Private And Personal Use Only
SR No.020639
Book TitleSanshay Timir Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherSwantroday Karyalay
Publication Year1909
Total Pages197
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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