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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संशयतिमिरप्रदीप। १५९ यदि आदि पुराण के श्लोक के अर्थ को प्रश्न कर्ता की ओर झुकावे तो बड़ी भारी बाधा आकर उपस्थित होती है। वह इस तरह-उस श्लोक में यह बात तो स्पष्ट है कि विश्वेश्वरादि देवता शान्ति के लिये माननीय हैं और जिनकी मांसादि भोज्य वस्तुओं से वृत्ति है वे झूठे देवता त्याग ने योग्य है। अब हमारा यह कहना है कि यदि विश्वेश्वर शब्द से तीर्थकरादिका ग्रहण किया जायगा तो वे देवता कौन है जिनकी मांस वृत्ति होने से निवृत्ति हो सकेगी ? जिनदेव से अन्य तो चतुर्णिकाय के देव हैं तो क्या उनकी............... हा! हन्त !! यह कल्पना विल्कुल मिथ्या है । प्रश्न--यह व्यर्थ दूसरों के ऊपर मिथ्यात्व का आरोप करना है। जैनमत में देवताओं की मांस वृत्ति बताना उनका अवर्ण बाद करना है ऐसा सर्वार्थसिद्ध में लिखा हुआ है। इसलिये विश्वेश्वरादि शब्द से तीर्थकरादिका ग्रहण करके शासनदेवता वगैरह की निवृत्ति करनी चाहिये ? उत्तर-यह बात ठीक है कि देवताओं की मांसवृत्ति बताना वह उनका अवर्णवाद करना है परन्तु उसमें विशेष यह है कि जिस तरह जैनमत में देवताओं की कल्पना की गई है उसी के अनुसार यह कथन है अन्यमतियों ने जो कल्पना की है उसके अनुसार नहीं है। और आदिपुराण में अन्यमतियों के देवताओं को लेकर ही निषेध है शासनदेवता वगेरह के लिये नहीं। प्रश्न-यह कैसे माना जाय कि आदिपुराण का श्लोक अन्य मति देवताओं के लिये निषेधक है ? For Private And Personal Use Only
SR No.020639
Book TitleSanshay Timir Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherSwantroday Karyalay
Publication Year1909
Total Pages197
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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