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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १० होती है तो परिपुष्ट बराबरी के चार शत्रुओं की विद्यमानता में जैनमार्ग की वृद्धि कैसे हो सकती हैं ? ॥ ३० ॥ 6 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१०) अब गुणिद्वेषधी नामका दशवां द्वार कहते हैं , सम्यग० ' इति -- जो सम्यगमार्ग अर्थात् विशुद्ध मार्ग के पोषक हैं, स्वरूप नेत्रों में षटुकाय जीवों के प्रति ही जिनका प्रशम भाव को प्रकट करता है, जिनके करुणा का भाव उमड रहा है, जो विशुद्ध चारित्र के आराधक हैं, जिन्होंने अहङ्कार को मार भगाया है, सूखे हुए घासों के ढेर को जितनी सरलतासे जलाकर राख कर दी जाती है उसी प्रकार जिन्होंने कामको जलाकर राख कर डाला है, जो सर्वदा सिद्धान्तरूपी राजमार्ग पर चलते हैं, उन्मार्ग पर कभी नहीं, तथा जो उपशम भावसे युक्त हैं, एवं विवेकी सञ्जन लोग जिनका सर्वदा श्रादर-सम्मान किया करते हैं एसे विद्वान् सत्साधुओं से भी दोषों के भण्डार तीक्ष्ण स्वभाववाले ( अत्यन्त क्रोधी ) महारा ये चैत्यवासी लोग द्वेष किया करते है ॥ ३१ ॥ अब उनके मिथ्यात्व का वर्णन करते हैं ' देवीय० ' इति - मिथ्यात्वरूप ग्रहसे ग्रहिल ( उन्मत्त ) मनुष्य इस काल में दोषों के भण्डार को देव मानते हैं, जिन्होंने बडे २ दोषों को नष्ट कर डाला है अर्थात् वीतराग देव हैं उनको देवरूपमें स्वीकार नहीं करते हैं। महामूर्खराजों को सर्वज्ञ मानते हैं और तत्रज्ञों को असर्वज्ञ मानते हैं । जैनमार्ग को उन्मार्ग कहते हैं. और कुमार्ग को सन्मार्ग कहते हैं । तथा दुर्गुणों के शिरोमणि होते हुए भी अपने को गुणवान् कहते हैं यह सब कितने आश्चर्य की बात है ॥ ३२ ॥ ' सङ्घ ० ' इति - इन हीन आचारवाले चैत्यवासियों को देने के लिए बनवाये गये चैत्यरूप कूट अर्थात् जालमें जो फसे हुए हैं, इसी हेतु जो अन्तःकरण से छटपटा रहे हैं, परन्तु इन चैत्यवासियों की मुद्रा अर्थात् ' हमारे चैत्य को छोड़कर अन्यत्र मत जाओ' ऐसी राजाज्ञा ( हकूमत ) रूप दृढ़ बन्धन से बन्धे हुए होने के कारण जो जरा भी हिल-डुल नहीं सकते हैं। मुक्ति के लिये जो दान शील तप आदि करते हैं, परन्तु इन हीनाचारियों के कुसङ्घ की परम्परा में पड़े हुए हैं । ऐसे जो ये दयनीय भव्य प्राणीरूप हरिणों के झुण्ड हैं, उनका हीनाचारियों के कुसङ्घरूपी व्याघ्र से छुटकारा कहां ? अर्थात् जैसे हरिणसमूह जब व्याघ्रक्रम - व्याघ्रपरम्परामें आजाता है। तब उसका छुटकारा असम्भव हो जाता है । उसी प्रकार इन हीनाचारियों के समरूप For Private And Personal Use Only
SR No.020632
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshraj Upadhyay
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1953
Total Pages132
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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