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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'यत्किञ्चि.' इति-जो एकदम असत्य है, जैसे कि श्रेणिक राजा का रजोहरण को वन्दन करना आदि, तथा जो अत्यन्त अनुचित है, जैसे पिता आदि के उद्देश्य से यात्रा आदि करना, अथवा जिनालयमें लकुटक्रीडा (रासलीला) करना आदि, और जो लौकिक तथा लोकोत्तर दोनों से बाह्य है, जैसे-सूतकवाले घर से मिक्षा लेना, रजस्वलाका जिनेन्द्रपूजन, हीनजातियों को परमेष्ठि मन्त्र पढ़ाना, उन को दीक्षा देना और उनसे जिनेन्द्र की प्रतिमा कराना, तथा जो भव्य प्राणियों के लिये संसार का कारण है, जैसे-जिनमन्दिरमें जलक्रीडा आदि, एवं जो शास्त्राज्ञासे विरुद्ध है, जैसे आधार्मिक भोजन आदि, अथवा अधिक श्रावण हो जाय तो अस्सी वें दिन पर्युषणपर्व करना आदि. इन सबोंको ये मूर्ख कुबुद्धि चैत्यवासी लोग धर्म कहते हैं और ये मूर्ख लोग इनको सीपमें चांदी के समान भ्रमसे जिनमतानुसार समझकर स्वयं इनका स्वीकार भी करते हैं। अरे ! देखो यह दुरन्त-परिणाममें अहितकर इस असंयतपूजारूप दशम आश्चर्य की कैसी करतूत है ? ॥ २८ ॥ 'कष्टं ' इति-यह अत्यन्त खेद की बात है कि-जन्मसे ही अन्धा और वैदेशिक ( वहां का नहीं रहनेवाला ) होनेसे मार्ग को अच्छी तरह नहीं जाननेवाला मनुष्य अपनी गर्दन उठाकर दिशा भूले हुए अन्धों को महाभयङ्कर अरण्यमें उनके गन्तव्य नगर का मार्ग दिखला रहा है (१)। इससे भी अधिक खेद की बात यह है कि-जिनकी आँखें अच्छी हैं, जो सुन्दर एवं विघ्न रहित मार्ग को जानते हैं उनको भी वह वैदेशिक जन्मान्ध मनुष्य मार्ग दिखलाने का साहस करता है (२)। तीसरी खेद की बात सबसे अधिक यह है कि-अब वे मार्गज्ञ नेत्रवान् मनुष्य उस वैदेशिक जन्मान्ध की बात नहीं मानते हैं तो वह उनकी इस प्रकार हँसी करता है जैसे किसी मूर्ख की हँसी की जाती है ।। २९ ॥ सैषा' इति--जिसमें समय-समय अर्थात् प्रतिसमय भव्य भावों का हास हो रहा है एसा हुण्ड संस्थानवाला अवसर्पिणी काल इस समय विद्यमान है (१)। दो हजार वर्ष तक एक राशि पर टिकनेवाला भम्मराशि नामक तीसवाँ क्रूर ग्रह का अधिकार है (२)। और तीसरा असंयति पूजारूप यह प्रत्यक्ष दशवाँ आश्चर्य खूब वेगसे अपना प्रभाव जमा रहा है ( ३ )। ये तीन और चौथा दुष्षमाकाल (४)। ये चारों जिनसिद्धान्त को क्षत-विक्षत करने के लिये पर्याप्त बद्धपरिकर हैं। ये चारों शत्रु इस समय प्रतिपल-निरन्तर खूब परिपुष्ट हो रहे है, ऐसे समय में सर्वोत्कृष्ट विशुद्ध जैन मार्ग अत्यन्त दुर्लभ हो गया है। जब एक शत्रु के रहने पर भी साधुवृद्धि नहीं For Private And Personal Use Only
SR No.020632
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshraj Upadhyay
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1953
Total Pages132
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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