SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ८ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संघपति रूपजी वंश - प्रशस्ति लेने पर भी हुंडी करने वाले का कहीं नाम तक न मिला । विचक्षण सोमजी को उस हुंडो के गौरपूर्वक देखने मात्र से उस पर अश्रुबिन्दु का दाग देखकर यहस्य समझ में आ गया और अपने किसी स्वधर्मीबन्धु के विपत्ति का अनुभव कर निजी खाते में खरच लिखवा कर सिकार दी। कुछ दिन के पश्चात् वह अज्ञात स्वधर्मी भाई वहाँ आया और आग्रहपूर्वक हुंडी के रुपये जमा करने को प्रार्थना की। किन्तु सोमजी ने, 'हमारा आपके ( नाम से) पास एक पैसा भी लेना नहीं है' यह कहते हुए रुपया लेना अस्वीकार कर दिया । आखिर संघ की सम्मति से श्री शान्तिनाथ प्रभु का जिनालय निर्माण कराने में वे समस्त रुपये व्यय कर दिये गए । (च) सं० सोमजी की वंश परंपरा के व्यक्ति अब भी अहमदाबाद में निवास करते हैं । काव्य की स्वोपज्ञ- टीका कवि ने इस प्रशस्ति- काव्य के ८-१२, १५-१७, २०, २४, २५, ३१-३८, ४१, ४३, ४४, ५४, ५६, ६२, ६३, ७८ पद्यों में भागत दुर्बोध एवं क्लिष्ट शब्दों की व्याख्या की है और सारे पद्यों में क्लिष्ट शब्दों के लिये टिप्पणी का प्रयोग किया है। वस्तुत: यह टोका न होकर दुर्गम-शब्दों का विवेचन करने वाली टिप्पणिका ही है । अन्त में विद्वानों एवं शोधकों से निवेदन है कि इस प्रशस्ति-काव्य की कोई पूर्ण प्रति प्राप्त हो तो सूचना देने का कष्ट करें । For Private And Personal Use Only
SR No.020631
Book TitleSanghpati Rupji Vansh Prashasti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan
Publication Year1969
Total Pages34
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy