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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भला ऐसे पवित्र स्थान पर किस मनुष्य की कटु निगाह हो सकती है, क्योंकि वहां पापी से पापी मनुष्य भी जाता है तो एक समय तो अवश्य उसका ध्यान परमात्मा की ओर आकर्षित हो ही जाता है। वह अपने आपको एक दूसरे रूप में देखने लगता है। उसको अपने जीवन में नवीनता के दर्शन होते हैं। पुराने किये हुए पापों का प्रायश्चित करने की स्वभाविक भावना उत्पन्न होती है। यह केवल मात्र उस पुण्य भूमि का ही प्रभाव है। आज भी हजारों ही नहीं लाखों मनुष्यों की भक्ति का केन्द्र बना हुआ है। ___ आज यह तीर्थ बिहार राज्य के अन्तर्गत आया हुआ है और इस तीर्थ के आसपास १६ हजार एकड़ जंगल है। इस जंगल में भी जैन मुनियों ने दीर्ख तपश्चर्या करके निर्वाण को प्राप्त किया। आज यह बताने के लिये हमारे पास ऐसा कोई साधन नहीं है कि अमुक स्थान ही निर्वाण का स्थान है। बाकी केवल मात्र जंगल है। यह सब भूमि निर्वाण भूमि होने के कारण वंदनीय पूजनीय है। हो सकता है कि जो इस धर्म के अनुयायी नहीं है वे इस भूमि को इतने पवित्र रूप में नहीं देखते हो किन्तु उनकी आत्मा में इस भूमि के प्रति अगाध भक्ति व प्रेम है। उनके हृदय को जरा टटोलकर देखो तो पता चलेगा कि भक्ति का क्या रूप होता है। बिहार राज्य ने थोड़े दिनों से इस तीर्थ को हथियागलेने की दृष्टता की है। यह प्रजातन्त्र के लिये एक बहुत बड़ा कलंक है। सरकार को जरा दीर्घ दृष्टि से सोचना चाहिए कि सबसे पहले इस तीर्थ को आस-पास के तमाम जंगल की भूमि श्वेताम्बर जैन समाज की अपनी एक निजी सम्पत्ति है। इस तमाम भूमि को एक समय जैन समाज ने क्रय किया है। उस पर किसी भी अन्य व्यक्ति या समाज का कोई अधिकार नहीं है। न इस जंगल से कोई व्यक्ति विशेष अपना नीजि फायदा उठा रहा है। उस जंगल की एक इंच हरी लकड़ी कतई नहीं काटी जाती है। वृक्षों को मनुष्य की तरह जीने और पनपने का पूर्ण अधिकार दे रखा है। इस जंगल में किसी तरह की हिंसा, अनाचार, अत्याचार आदि कोई दुष्कर्म नहीं होता है। जंगली जानवर स्वतंत्रता से घूमते फिरते हैं। उनकी हिंसा तो दूर रही उनकी तरफ आंख उठाकर भी कोई नहीं देखता है। ___ धानसा में ऐसी उत्पन्न संकट पर विचार करने के लिये पूज्य जैनाचार्य श्रीमद्विजय विद्याचन्दसुरीश्वरजी महाराज की निश्रा में एक सम्मेलन सम्पन्न हुआ जिसमें भारी जोश एवं सम्मेतशिखर प्राप्त करने की उमंग परिलक्षित होती थी। ५२ For Private And Personal
SR No.020622
Book TitleSammetshikhar Jain Maha Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1994
Total Pages71
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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