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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नहीं हटेंगे नहीं डिगेंगे ■ जैनरत्न श्री राजमल लोढ़ा इतिहास का संबंध ऐसे बिते हुए युग से है जिसमें ऐसे साधनों का आश्रय लेना पड़ता है जो उस काल के अवशेषों के रूप में हमें उस युग का परिचय कराने में सहायक होते है। ऐसे ही स्थानों पर ऐतिहासिक स्मारक दिखाई देते हैं। ऐसे ही स्मारक इतिहास को जीवित रखते हैं। जो हमारे देश की सांस्कृति निधियों में से है जिन समाज के सन्निकट ऐसी एक बहुत बड़ी निधि है, जिसकी यदि खोज की जाए तो भारत के इतिहास में अलग से एक बहुत बड़ा विभाग तैयार हो सकता है। वैसे जैन समाज के पास कई प्राचीन तीर्थ रूप में स्मृतियां विद्यमान है। किन्तु उनमें भी ऐसे प्राचीन व ऐतिहासिक स्थान है जिके कण-कण की धूल को मस्तक पर लगाकार अपने आपको धन्य समझा जाता है। बीस तीर्थंकर, १२८० गणघरों एवं अनन्त मुनियों की मोक्ष भूमि जैसे परम पुनित स्थान की रक्षा व पवित्रता को बनाये रखने का भार श्वेताम्बर जैन समाज ने हमेशा अपने ऊपर ले रखा है। और अभी इसी सम्पूर्ण समाज की आनन्दजी कल्याणजी की पेढ़ी इस तीर्थ की वर्षों से देखभाल व संपूर्ण व्यवस्था करती है। यह भूमि प्रत्येक व्यक्ति के लिये दार्शनिक, वंदनीय एवं पूजनीय है। इसका हर तरह सत्कार, सम्मान करने के लिये प्रत्येक जन हर समय कटिबद्ध रहता है। इस तपोभूमि पर तीर्थकरों के निर्वाण को हजारों वर्ष ही नहीं बल्कि लाखों वर्ष व्यतीत हो गये किन्तु किसी ने भी आज तक इस तीर्थ पर आंख उठाकर नहीं देखा, क्योंकि यह भूमि किसी की आजीविका चलाने का मौज मजा उड़ाने का, सुख सुविधा प्राप्त करने का साधन नहीं है । यह स्थान तो उन तपो मूर्तियों का पथ प्रदर्शन करता है । जिन्होंने इस संसार को असार समझकर हमेशा के लिये अपनी आत्मा को सम्यग ज्ञान, दर्शन, चारित्र मय बना लिया और आत्मा को परमात्मा के रूप में परिणित कर दिया। ५१ For Private And Personal
SR No.020622
Book TitleSammetshikhar Jain Maha Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1994
Total Pages71
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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