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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir में तैयार किया। पंडित दयारूचि गणि द्वारा श्री सम्मेतशिखरजी का एक रास सं. १८३५ में लिखा गया था, जो भाषा में लिखा हुआ है और अहमदाबाद से निकली एक महान् संघयात्रा का कविवर मुनि श्री वीर विजयजी के शिष्य दासमुनि द्वारा एक रास श्री सम्मेतशिखर तीर्थ की अहमदाबाद से निकली अभूतपूर्व संघयात्रा के वर्णन को लेकर लिखा गया है, जो अत्यन्त रोचक है। श्री बालचंदजी उपाध्याय आदि अनेक मुनिवरों ने इस तीर्थराज सम्बन्ध में खूब लिखा। अभी हाल ही में मुनि श्री जयंतविजयजी मधुकर ने एक विस्तृत सम्मेतशिखर स्तवन की रचना की है, जो रोचक और पठनीय है। (१) तीर्थराज की स्तवना में जिन पुण्य पुरुषों ने श्रम लिया है, वह धन्य हैं। नवमी शताब्दी के पश्चात् जब पूर्व भारत से जैन प्रभाव छिन्न-भिन्न हो गया और उसके पश्चात् क्षेत्रीय अराजकता के कारण इस तीर्थराज की यात्रा में अनेक कठिनाइयाँ व्युत्पन्न हो उठी, तब गुजरात, राजस्थान, सिंध, पंजाब आदि प्रदेशों से यात्रियों का सुदूर श्री सम्मेतशिखर यात्रार्थ जाना अत्यन्त कष्टकर एवं श्रमसाध्य या। ___ शुद्ध मेयजल अभाव में गिरि शैल के निर्झरों के वनस्पति मिश्रित जल के सेवन से अनेक यात्री बीमार पड़ जाते, दारूण, जठर रोग ग्रस्त हो जाने के भय से भी इस तीर्थ यात्रा के लाभ को प्राप्त करने का साहस कुछेक ही करते हैं। संघ यात्रा के बगैर इस तीर्थ की यात्रा का लाभ प्राप्त करना, असाध्य-सा था। तथापि अनेक महान् आचार्यों द्वारा इस तीर्थराज की यात्रा की गई थी। बहुत पूर्वकाल में श्री जंधाचारण मुनि एवं श्री विधाचरण, श्री पादलिप्तसूरि आदि ने यहाँ यात्राएँ की थीं। श्री रत्नशेखर सूरि, शी बप्पभट्टसूरि, श्री श्री उद्योतनसूरि, कवि दयारुचि, श्री देवसूरि, मासोपवासी श्री धर्मघोषसूरि, चक्रायुध गणधर सूरि, दिनकरसूरि, श्री प्रद्युम्न सूरि (सात बार), विमचंद्रसूरि (१० बार), श्री वादीदेवसूरि, श्री जयविजय गणी, श्री हंससोमगणी-विजयसागर, श्री हीर विजय सूरि, पं. श्री रूपविजयजी, श्री वीरविजयजी, श्री विमलचंद्रसूरि, प्रभृति अनेकानेक महान् आत्माओं ने अत्यन्त कष्ट सहन कर भी इस तीर्थ की यात्रा की थी। लेकिन निरन्तर यात्रिकों के प्रवाह के अभाव में इस सघन आच्छादित शैल स्थित तीर्थ का विकास अन्यान्य जैन तीर्थों-सा नहीं हो पाया, अंग्रेजी शासनकाल में जब आवागमन के मार्गों का सुप्रबंध For Private And Personal
SR No.020622
Book TitleSammetshikhar Jain Maha Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1994
Total Pages71
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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