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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir को छोड़कर शिवभूति मुनि नग्न होकर वहाँ से चल पड़ा एवं उद्यान के कोई निर्जन भाग में काउसग्ग ध्यान में रहा। ___शिवभूति मुनि की बहीन उत्तरा ने भी साध्वी दीक्षा ले रखी थी। जब उसने जाना कि बंधु मुनि शिवभूति दिगम्बर बने हैं, तब उत्तरा साध्वी भी अपने वस्त्रों का त्याग कर दिगम्बर साध्वी बन गई। आहार गोचरी के लिए जब उत्तरा साध्वी ने नगर में प्रवेश किया, तब साध्वी का अपूर्व देह सौन्दर्य वाला नग्न शरीर, सभ्य-सज्जनों को लज्जा उत्पन्न करता था, जबकि कामीजनों-दुर्जनों को तो काम विकार का हेतु बनने लगा, साध्वी के नग्न शरीर को कुद्दष्टि से देखने लगे। ___ उस समय अपने प्रासाद के गवाक्ष में बैठी एक वारांगना (वेश्या) ने इस उत्तरा साध्वी को ऐसी स्थिति में होने वाले वातावरण को देखकर सोचने लगी कि यदि तपस्वी साध्वी इस तरह नान गाँव-शहर में भटकेगी, तब तो अपने व्यवसाय में बड़ा अनर्थ होगा। क्योंकि वस्रादि अलंकारों से संवृत ढंका हुआ स्त्री का देह काम उत्पन्न करता है, जबकि वहीं स्त्री की नग्न देह बार-बार देखने से विनता जुगुप्सता उत्पन्न करता है। यदि ऐसा हो तो हमारी वैश्यावृत्ति ही नष्ट हो जाएगी। ऐसा सोचकर उसने एक वस्त्र (साटिका) उस उत्तरा साध्वी के नग्न देह के ऊपर फेंकी और उस वारांगना की एक दासी ने साध्वी के मना करने पर भी नग्न देह वाली उत्तरा साध्वी के शरीर को उस साटिका से लपेट दिया। उत्तरा साध्वी ने भी अनुक्रम से शिवभूति मुनि के पास जाकर सारा वृतान्त निवेदित किया, तब शिवभूति मुनि बोला कि स्त्री लोग नग्न नहीं रह सकते, इसलिए आप यह साटिका पहनो। स्त्री देह नान नहीं रह सकने के कारण वह सम्पूर्ण चारित्र का पालन नहीं कर सकते अतः स्त्री देह में कभी भी मुक्ति नहीं मिल सकती। ऐसा उस समय शिवभूति ने मनो मन निर्णय किया। ___ शिवभूति मुनि में प्रवचन शक्ति अपार थी अतः उनके प्रवचन से प्रभावित होकर कोडिन्य एवं कोट्टवीर नाम के दो शिष्य हुए, जो कोडिन्य, वो ही आज दिगम्बरों के मान्य कुन्द कुन्दाचार्य। इस तरह से उनके उत्तरोत्तर शिष्य बनते गए एवं दिगम्बरों की परम्परा चालू हुई। इस तरह वीर परमात्मा के निर्वाण से ६०९ वर्ष के बाद दिगम्बर मत की उत्पत्ति हुई है। - ज्योतिषाचार्य मुनि जयप्रभविजय श्रमण इस निबन्ध के आधार ग्रंथ उत्तराध्यन सूत्र २- निहनववाद (छपा हुआ व १७७६ वर्षे उत्तराध्ययन सूत्र सम्पूर्ण ३६ अध्ययन स्वाध्याय के लिए हस्त लिखित है, उससे उद्धृत) शिवमस्तु सर्वजगतः - जैनं जयति शासनं गणधरों For Private And Personal
SR No.020622
Book TitleSammetshikhar Jain Maha Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1994
Total Pages71
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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