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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समाचार पत्रों द्वारा इन ग्रन्थोंके प्रकाशित करने की सूचना भी दे दी है तथा इनके खडनात्मक ग्रन्थोंका सैकड़ों स्थानों तथा नगरो से बहिष्कार भी कराया है। परन्तु, आज तक तपागच्छवाले कानमें तेल डाले अपनी डफली अलगही बजा रहे हैं। अतएव, मुझे लाचार होकर "आनन्द सागरके व्याकरण की पोल" नामक एक लघुपुस्तिका निकालनी पड़ी। पाठकगणों को तपागच्छोय संघ की परम्परा तथा इनके घर घरमें विद्रोह का नमूना और इनके वाह्याडम्बर का आदर्श प्रदर्शित करनेके लिए मैंने फिर भी "सागरोत्पत्तिकी पोल नामक प्राचीन पुस्तकका अनु. वादकर प्रकाशित करानेका प्रयत्न किया हैं। यह पुस्तक पाठक बृन्दों को दर्पणवत साफ़ २ प्रत्यक्षीभूत (प्रकाशित) करा देगी कि तपागच्छयाले किस प्रकार अपने योग्य एवं पूज्य पुरुषों का पूर्व से ही आदर सत्कार अपशब्दों ( गालियों ) तथा लान्छनाओंसे करते आ रहे हैं। अर्थात् अपशब्दोच्चारण इनकी वंश परम्पराका अभ्यास हैं । यदि आजकल इनके मुखसे किसी आचार्य के प्रति अपशब्द ( गालियां ) निकलते हैं तो कोई बड़ी आश्चर्य की बात नहीं हैं। __ सारांश यह है कि मैंने इस प्राचीन ग्रन्य का हिन्दो रुपान्तर करने का साहस काल दो कारणोंसे किया है। प्रथम, तपागच्छोय संघ तथा सागर शाखाके अनुरक्त भक्त, अमावस्याके चन्द्रवत् देदीप्यमान, मूकबाचस्पति श्रोसागरानन्दजोको सूचित करना For Private And Personal Use Only
SR No.020617
Book TitleSagarotpatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamal Maharaj
PublisherNaubatrai Badaliya
Publication Year1926
Total Pages44
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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