SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निवास । कृपाउसे ( ५० ) कोपरा उदा० घर घर कूहर सी भई कूह रही पुर केर-संज्ञा, पु० [हिं० करील] करील, काँटेदार छाय । ऊहर सब कूहर भई एक वृच्च । बनितन लगी बलाय । उदा० सपत बड़े फूलन सकुचि सब सुख केलि --वोधा कृपाउस-संज्ञा, स्त्री० [सं० कृपा] कृपा, दया । अपत कर फूलत बहुत मन में मानि हुलास । उदा० माई रितु पाउस कृपाउस न कीनी कंत् करव-संज्ञा, पु० [सं०] १. शत्रु, २. कुमुद, . छाइ रह्यो अंत् उर बिरह दहत है। ३. सफेद कमल । -सेनापति उदा० १. त्यों अलि कोकिल के कल करव क्यों केम-संज्ञा, पु० [सं० कदंब] कंदब नाम का बचिहैं दुख सिधु अगाधे । --चन्द्रशेखर वृक्ष । को- संज्ञा, पु० [देश॰] पुत्र, लड़का । उदा० खेल न रहिबौ खेम सौं केम कुसुम को बास उदा० एरी मेरी बीर जैसे तैसे इन प्रॉखिन सों --बिहारी कढिगी अबीर पै अहीर को कढ़ नहीं। लग्यो तरु तावन सावन मास । -पद्माकर प्रजारति कम कुसुमिय बास ॥ राजा मिले अरु रंक मिले कवि बोधा --बोधा मिले निरंसक महा को। -बोधा केल-कुंज-संज्ञा, पु० [सं० कदलीबन] कदली- कोठ-संज्ञा, पु० [सं०प्रकोष्ठ[ कलाई, प्रकोष्ठ । कुज, केला का बन । उदा० ठिले कोठ बांधे धरे तेग काँधे । उदा० माली तजि मौन करि गौन हित-भौन तुरंगान साधे सबै जुध्ध ना। चलि, केल करि केल-कुज केलि के उपाइ --पद्माकर करि। -आलम कोत-अव्य० [देश॰] और, तरफ से । केवली-संज्ञा, पु० [सं० कैवल्य] मुमुच, मोक्ष । उदा. होत अरुनोत यहि कोत मति बसी पाजु, प्राप्त करने के इच्छुक २. वीतराग, विज्ञानी। कौन उरबसी उरबसी करि पाए हो। -दूलह उदा० केवली समूढ़ लाज हूँढ़त ढिठाई पैये । सीताजू की खबरि दियो जो प्राइ ताकी चातुरी अगूढ़ गूढ़ मूढ़ता के खोज है। कोत जो जो मांगी प्राजु हनुमान सो सो --देव लीजिये। -रघुनाथ कैनि-संज्ञा, स्त्री० [फा० कोरनिश] प्रार्थना, कोते - वि० [फा० कोताह] थोड़ा, कम। बिनती, कुन्नस । उदा० राग बिरागनि के परिभन हास विलासनि उदा० विधि विधि कनि करै टरै नहीं परेह पान ते रति कोते । -केशव .. चित कितै ते लै धरो इतो इते तनु मानु ! कोंबर-संज्ञा, पु० [बुं०] खाँडर, वृक्ष का छिद्र । -बिहारी । उदा० भूल बिसर जिन डारौ कबहूँ कोंदर खदरन कैफ--संज्ञा, पु० [अ० कैफ] नशा, नशीली हाथू । -- बकसी हंसराज वस्तु। कोद-अव्य० [सं० कोण] ओर, तरफ । उदा० बद्दल बिलंद बरसा के बिरुदैत कछु, कठिन उदा० केतकी रजनि अरगजनि मधुर मधु, राका कजाक कैफ खाये से फिरत हैं। की रजनि राज रंजित चहूँ कोदनि ।-देव ---'चातुर कोधो-अव्य० [हिं० कोद] ओर, तरफ । ल्याई केलि मंदिर भोराय भोरी भामिनी उदा० या जिय मैं पिय मूरति है पिय मूरति देव को फूल गंध कैफबस कीन्हों पौन साख त । सुमूरति कोधो। -पजनेस कोपर--संज्ञा, पु० [बु.] थाल । केबर-संज्ञा, स्त्री० [देश॰] तीर का फल, उदा० कोपर हीरन को प्रति कोमल । ता महँ गाँसी । कुकुम चन्दन को जाल । _ -केशव उदा० चमकै बरुनी बरछी ध्रुव खंजर कंबर तीछ! कोपरा-संज्ञा, पु० [हिं० कोंपर] भिक्षा-पात्र, कटाछ महै । -दास एक पात्र । -देव For Private and Personal Use Only
SR No.020608
Book TitleRitikavya Shabdakosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishorilal
PublisherSmruti Prakashan
Publication Year1976
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy