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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कदंब ( ३६ ) कपाट मुख -दास -देव कब-संज्ञा, पु० [सं०] समूह, ढेर २. एक । कनसूया--वि० [हिं० कान-सुनना ] कान वृक्ष, कदम । लगाकर सुनने वाली, आहट लेने वाली, भेद उदा. होति क्यों दुखित ह्वाँ कदंब है कदंब, लेने वाली । पाली, जहाँ पियाबासा है तहाँ ही पियबासा उदा० ननद निगोड़ी कनसवा कौरै लागी रहैं -बेनी प्रवीन सास सुनिहै तौ नाह नाहर सो करिहै । कद-संज्ञा, पु० [अ० कद] शरीर, तन । =केशव केशवराय उदा० अखियाँ मुखंबुज में भौर ह' समानीं, मई कनहेर-संज्ञा, पु० [हिं० कन-कनखी+हेरबानी गदगद कद कदम सो फूलिगो। देखना] दर्शन, कनखी से देखना, कनखी से दर्शन करने का कार्य । कदमावम-वि० [अ० कद्दे आदम ] मानव उदा० तिखने चढ़ि ठाढ़ी रहूँ लेन करू कनहेर । शरीर के तुल्य ऊँचा । -रसखान उदा० कद आदम सीसा लखे पजनेस लगे नख कने-क्रि० वि० [सं० करणे] १. पास, निकट छाती छिपावति है। -पजनेस २. तक, पर्यंत ३. ओर। कदर्थना-संज्ञा, स्त्री० [सं० कदर्थन ] दुर्गति, उदा० १. कारे लहकारे, कामछरी से छरारे, दुर्दशा । . ___ छरहरी छबि छोर छहराति पींडरीउदा० हरि-जस-रस की रसिकता, सकल रसाइन सार, जहाँ न करतु कदर्थना, यह न अर्थ कन-अव्य० [सं. करणे] पास, निकट, समीप संसार । -देव २. ओर ३. अधिकार में, कब्जे में । 'कधी-अव्य० [पंजा०] कमी, किसी समय ।। उदा० तैसी समसेर सेर काहू के कनै नहीं। उदा० कधी अलसाय तनतोरै। अंगूठी हाथ की -पद्माकर फोरै। -बोधा कनौड़ी-वि॰ [हिं० कान+ौड़ी] १. निंदित, कन-संज्ञा, पू० [सं० करण] भिक्षा । कलंकित २. कृतज्ञ, एहसानमंद । उदा० कन दैबो सौंप्यो ससूर बह थरहथी जानि। उदा. १. ह्र रही कनौड़ी मति, कौड़ी भई -बिहारी गोपी अति डौंडी फिरी लाड़ी कीन कनद-संज्ञा, पु० [सं० कण ] अन्न का छोटा लाज धारियतु है। 'रसकुसुमाकर' से टुकड़ा, चावल का कना। कनौती-संज्ञा, स्त्री० [सं० करण+हिं० पोती उदा० भनत प्रवीन बेनी धनद सुखानो जात, प्रत्य०] १. कान का एक प्राभूषण, बाली २. कनद समेटत सकल सुख सामा के । . कानों का किनारा, नोक । -बेनी प्रवीन उदा० अजौं करति उरझनि मनौ, लगी कनौंती कनवारी-संज्ञा, स्त्री० सं० कर्ण+बालिका] कान। -घनानन्द कान में पहनने का एक आभषण, बाली । २. कनौती खुसी सीखड़ी खूब छोटी, उदा० गुहे, गभुमारे, घुघुरारे बार. सोहै सिर, नुकीली न सी कला कै जु कोटी। मोती बीच, बनक कनक कनवारी के । -पदमाकर -देव कपतपिलंग-[ सं० कपोत । पिलक ] पिलक कनसुना--संज्ञा, पु० [हिं० कान + सुनना ] कपोत रंग (श्वेत और लाल ) रंग वाला पाहट, टोह मुहा० :- कनसुइयाँ लेना, छिपकर घोड़ा। किसी की बात सुनना, किसी का भेद लेना। उदा तहँ कपतपिलंगन उमड़ि उमगन अंगन उदा० सुनी अनसुनी करि, काननि कनेख देखि. | अंगन दुति उमही। -पद्माकर भीगी अँसुवनि कनसुवनि सुनत फिरै.. कपाट मुख-संज्ञा, पु० [स० कपाट+मुख्य –देव । मुख्य कपाट ] मुख्य कपाट, सिंह द्वार । For Private and Personal Use Only
SR No.020608
Book TitleRitikavya Shabdakosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishorilal
PublisherSmruti Prakashan
Publication Year1976
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size21 MB
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