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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवरेखना ( १५ ) प्रसु उदा० को है वह देखि महा मोहनी को भेख धरै । उदा० है अधरा मैं मिठाई अवादन, पावै सवाद नखसिख देव-देवता को प्रवरेख सों। सुधा सने कंद मैं । -ग्वाल -देव प्रवेज-संज्ञा, पु० [अ० एवज] प्रतिकार, बदला। प्रवरेखना-क्रि० स० [सं० अवलेखन] १. अनु- उदा० मारग में गज में चढो जात चलो अँगरेज । मान करना, सोचना, कल्पना करना २. देखना कालीदह बोर्यो सगज लिय कपि चना प्रवेज ३. लिखना, चित्रित करना, ४. मानना । -रघुराज उदा० १. पाच मिली न मिली सखिया मिलि प्रसंगत-वि० [सं० प्रशंक ] १. प्रशंकित बोई सु केशव क्यों प्रवरेख्यो। -केशव निडर, निर्भय, २. अनुचित, ३. अयुक्त, बेठीक । अवरोहना-क्रि० स० [सं० अवरोधन] रोकना, उदा० मुरली सुनत बाम काम जुर लीन भई छेकना, घेरना, पकड़े रहना २. खींचना चित्रित धाई धुर लीक तजि, बीधी विधुरनि सों, करना । __ पावस नदी सी गृह पावस न दीसी पर उदा० कौन जाने को ही उडि लागी डीठि मोही उमड़ी असंगत तरंगित उरनि सों । उर रहै अवरोही कोई निधि ही निकाई की। -देव | प्रसकंघ-संज्ञा, पु० [सं० स्कन्ध] स्कन्ध, काण्ड, पवलच्छ-वि० [सं० अपलक्ष] गायब, दिखाई । अध्याय । न पड़ना । उदा० सुर ज्ञान जु ध्यान मुनिन्दनि कै बरन्यो उदा० पच्छ बिन गच्छत प्रतच्छ अंतरिच्छन में, असकंध दुादस । -पालम प्रच्छ अवलच्छ कला कच्छनन कच्छे हैं। . असकना-क्रि० अ० [हिं० अ (प्र० का आगम) --पद्माकर + सकाना = भयभीत होना] भयभीत होना, अवलेप-संज्ञा, पु० [सं०] गर्व, अभिमान । डरना उदा० गुप्तादिक षट-भेद ये, तजि कुल गलि अवलेप, उदा० पैज करी, क्रुद्ध चल्यौ रामानुज सुद्ध सुनि, नाम समान बिचारिये, उदाहरे संछेप । जुद्ध को पयान मघवान असकत है। -देव -समाधान अलोना-वि० [सं० अ+लावण्य ] लावण्य असमसरी-संज्ञा, स्त्री, [सं० असमशरी] काम रहित, आकर्षणहीन, नीरस, फीका, बेमजा । देव की स्त्री, रति । उदा० की लगि प्रलोनो रूप प्याय प्याय राखौं उदा० लेखी मैं प्रलेखी मैं नहीं है. छवि ऐसी नैन, नीर देखें मीन कैसे धीरज धरतु है । और असमसरी कोबे को परै लिये। -केशव अवगाहना-क्रि० प्र० [सं० अवगाहन] सोचना, असरार-क्रि० वि० [हिं० सरसर] निरन्तर, विचारना । लगातार, धारा प्रवाह, बेरोक । उदा० मेढ़ी करी काजरी पियरि बौरी भूरी चारु उदा० अति सुन्दर अँखियन में अँसुवा उमंगि चले बलही मँजीठी बन बेला अवगाहिने , असरारा -बक्सी हंसराज -आलम असावरी-संज्ञा, पु० [१] एक प्रकार का रेशमी अवलोचना-क्रि० स० [सं० आलंचन] दूर वस्त्र, २. रुपहली साड़ी। करना । उदा० १. सारी असावरी की झलक, छलकै छबि उदा० को चैत को इह चाँदनी तें अलि याहि घाघरे घूम घूमारे । -देव निबाहि बिथा अवलोचै। -पदमाकर २. सुन्दरी क्यों पहिरति नग भूषन असावली अवाची-संज्ञा, स्त्री० [सं०] दक्षिण दिशा । -दास उदा० प्राची प्रतीची अवाची बिलोकि दसो दिसि असावरी मानिक कुंभ सोभै असोकलग्ना बन होत ही कूच कुचैनी। -गंग देवता सी। -केशव अवाब-वि० [सं० प्र+वद्य] अनवद्य, निर्दोष, | असु-संज्ञा, पु० [सं०] प्राण, चित, अनिद्य, पवित्र । उदा० दरस देखाई रुप नैन में बसाइ हिय मूरति -दास For Private and Personal Use Only
SR No.020608
Book TitleRitikavya Shabdakosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishorilal
PublisherSmruti Prakashan
Publication Year1976
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size21 MB
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