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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनाप अपीच उदा० न न अच्छर सब सों निरस, सुनि उपजत | अनेसा-वि० [सं० अनिष्ट] अप्रिय, बुरा। अनहेत । -गंग | उदा० कहि कहि निस दिन बोल अनसे जारत अनाप-वि० [सं० अनात्मन्] १. निर्बोध, जड़, जीव जिठानी। -बक्सी हंसराज मूर्ख २. प्रात्मा से परे। अपंग--संज्ञा, पु० [सं० अपांग] कटाक्ष, चितउदा० १. अरु दुहनि चहन जो नाहिं प्राप वन, ऑख का कोना। निलेप ब्रह्म सो उर अनाप । उदा० कसि तून वीर सजंग। अच्छरिय नैन -सोमनाथ अपंग। -जोधराज अनासुक्रि० वि० [सं० अनायास] बिना प्रयास अप-संज्ञा, पु० [सं० आप] १. जल, पानी, २. के, अचानक । आब, चमक, दीप्ति । उदा० वा दिन गई ती ब्रज देखन करील-बन उदा० लागे जोग जग में, न तप अनुरागे कभू, भूक मैं परी ती प्राइ बंसी के अनासुरी लागे रूप अप में सु पैरन अपारे ई। . -द्विजदेव -ग्वाल अनासी-क्रि० वि० [सं०अनायास] अचानक, अपधन-संज्ञा, पु० [सं०] शरीर, शरीर का बिना प्रयास के । अंग। उदा० चितवन चोर की अनासी दुग कोर की उदा० अपघन घाय न बिलोकियत धायलनि दें छोटी नथ मोर की मरोर मन ले गई । घनो सुख केशोदास, प्रगट प्रमान है। -ग्वाल -केशव अनिती-वि० [सं० अ+निन्ध] अनिन्द्य, अनि अपलोक-संज्ञा, पु० [सं०] पाप, बुरा कर्म । न्दनीय, अनवद्य । उदा० श्री रघुनाथ के आवत भागे। ज्यों अपउदा० भूपर कमल युग ऊपर कनक खंभ ब्रह्म की लोक हुते अनुरागे । -केशव सी गति मध्य सूक्षम अनिदोबर। -देव अपसर-संज्ञा, स्त्री [सं० अप्सरा] १. अप्सरा, अनुबावन-संज्ञा, पु० [सं० प्रवाद अनु+ २. वाष्प करण [पू०ी। | उदा० रहै अपसर ही की सोभा जो अनूप वाद 1.अफवाह, जनश्रुति । उदा० ऐसे अनुबादन के अनुवा घनेरे हैं। धरि सुभग निकाई लीने चतुर सुनारी है । -सेनापति अनुवा–संज्ञा, पु० [हिं० आनना, ले आना] ले | प्रपाइ-संज्ञा, पु० [सं० अपाय] अनरीति, अन्यथाचार । आने वाले, फैलाने वाले, उड़ाने वाले । उदा० ताहि तू बताइ जोई बॉह दै उसीसै सोई, उदा० तजि के अपाइ, तीर बसै सुख पाइ, गंगा । ऐसे अनुबादन के अनुवा घनेरे हैं। कीजै सो उपाइ,तेरे पाइ ज्यौं न छूट ही। -गंग -सेनापति अनून-वि॰ [सं० अन्यून] अधिक, बहुत बड़ा । अपांडि-संज्ञा, पु० [सं० आपाणि] मुट्ठी में, उदा० हथेली में, पाणि में। आवत बढ़यो न जग, जातह घट्यो न कछु, उदा० पूरन परम ग्राम बैकुंठ अकुंठ धाम लीने देव को विलास, देव ऐसोई अनून तो।। बिसराम प्रभु संपति अपांडि कै। -देव अपारथ--संज्ञा, पु० [हिं० आप-अपने+सं० देव दुहून के देखत ही, उपज्यो उर मैं अनु- अर्थ=प्रयोजन] स्वार्थ, अपना प्रयोजन । राग अनूनों। -देव उदा० स्वारथ न सूझत, परारथ न बूझत, अनूह-वि० [?] अयोग्य, न्युन । अपारथ झूझत, मनोरथ मयो फिर । उदाहीरन के जूह मंजु मनि के समूह समताई -देव में अनूह जानि भूतल तले गये। अपीच-वि० [सं० अपीच्य] सुन्दर, रुचिर । —नंदराम उदा० फहर गई धौ कबै रंग के फुहारन में, -गंग -देव For Private and Personal Use Only
SR No.020608
Book TitleRitikavya Shabdakosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishorilal
PublisherSmruti Prakashan
Publication Year1976
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size21 MB
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