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अधिकारी उदा० जाति में होति सुजाति कुजातिन-काननि फोरि करौ अधसॉसी ।
-दास अधिकारी-वि० [सं० अधिक] अधिक, अत्यधिक,
बहुत ज्यादा। उदा० मुख पै कच के अधिकारी खुले अधचौकी जगम्मग जोति करै ।
-आलम अधिच्छ—वि० [सं० अदृश्] अदृश्य, लुप्त । उदा० कहै पदमाकर न तच्छन प्रतच्छ होत अच्छन के प्रागेहू अधिच्छ गाइयतु है ।
-पद्माकर अधिरथिक-वि० [सं० अधिरथ] १. रथारुढ़
२. सारथी उदा० १. केसव छवीलो छत्र सीस फल सारथी सो. केसरि को आड़ अधिरथिक रची बनाइ ।
-केशव अनंत-संज्ञा, पु० [सं०] शेष नाग २. जिसका |
अन्त न हो। उदा० सुनो के परम पद्, ऊनो के अनंत मद्, नूनो के नदीस नदु, इंदिरा मुरै परी।
--देव अनकना-क्रि० सं० [सं० प्राकान] १. सुनना,
श्रवण करना २. छिपकर सुनना । उदा० यदपि सबै गावं मधुर, ऊँचे सुरन लगाइ,
तदपि अनकि मोहन सुरन, मोहैं गरब गवाँइ।
-रघुराज अनखोलिन-वि० [हिं० अनख] नाराज होने
वाली, बुरा मानने वाली ।। उदा० कहै पद्माकर अगार अनखीलिन की भीरी भीर भारन को भाँज देरी भाँज दै।
-पद्माकर नेको अनखाति न अनख भरी प्राखिन, अनोखी अनखीली रोख पोखे से करति है।
-देव अनखुली-वि० [हिं० अनख-क्रोध] ऋद्ध, क्रोध करने वाली, नाराज होने वाली। उदा० लगे जानि नख अनखुली, कत बोलत अनखाय ।
--विहारी अनगच्छ-वि० [?] निश्चंत, बिना किसो
शंका के । उदा० उचित जु जानहु सो तुम अच्छ ।
अनहेत करौ बलिदान सु ह्व अनगच्छ ।
-सोमनाथ अनगब्ब-वि० [सं० अन + गर्व] अगर्व, अहंकार
रहित । उदा० यह सुनि ब्रह्मचर्ज ह्य पव्वै ।
मंडप तन पायौ अनगव्बै । -सोमनाथ अनगाना-क्रि ० अ० [ब्र०] १. जान बूझ कर देर
लगाना, टालमटोल करना . पागे न जाना । उदा० मुहुँ धोवति, एड़ी घसति, हसति, अनगवति तीर ।
-बिहारी अनपरवाहिन-संज्ञा, स्त्री [सं० अन+फा०
परवाह] बेपरवाही, बेफिक्री। उदा० रुचि न दुकूलनि की, केस मांग फूलनि की, सबहीं छकाए जाकी अनपरवाहिनँ ।
-सोमनाथ अनबनी-वि० [सं० अन्य+वर्ण] अद्भुत वर्ण
का, विचित्र रंग का। . उदा० सहज बनी है घनानंद नवेली नाक, अनबनी नथ सौ सुहाग की मरोर ते ।
-घनानंद अनभग्गहि-वि० [अन+मग्ग, हिं० प्रभागा]
अभागा, भाग्यहीन, बदकिस्मत ।। उदा० अब त्यों निरवारतु या अनभग्गहि खग्ग प्रहारनि छोह छयी।
-सोमनाथ अनभावरि-संज्ञा, स्त्री, [हिं० अनभाना पसन्द न होना] न पसन्दगी का भाव, किसी वस्तु को पसन्द न करना । उदा० भावरि अनभावरी भरे करौ कोरि बदवाद्
-बिहारी अनमिलती-वि० [हिं० अमिल] विषम, अमिल, खराब । उदा० कई पदमाकर सू जादा कहीं कौन अब जाती मरजादा व मही की अनमिलती
-पद्माकर थनवच्छ-वि० [सं० अनवच्छिन्न] अखण्ड, बेरोकटोक । उदा० उच्छलत सुजस बिलच्छ अनवच्छ दिच्छ दिच्छन हैं छीरधि लौ स्वच्छ छाइयतु
-पद्माकर अनहेत-संज्ञा, पु० [सं० अन+हेत=प्रेम] विराग, सन्यास ।
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