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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पोत www.kobatirth.org १५६ (ख) पोटि भटू तट प्रोट बटो केलपेटि पटी सों कटी पटु छोरत । — देव पोत - संज्ञा, पु० [सं० प्रवृत्ति ] ढंग, ढब, रीति २. दाँव, बारी । उदा० १. नीचे हिये हुलसो पोल । रहै गहें गेंद को - बिहारी सौं चलत, पावत न पोत -सेनापति माला या तीर २. धनुष क पाइ खग मानौ ह्र रही रजनि दिन है | पोति—संज्ञा, स्त्री० [सं० प्रोता ] गुरिया का छोटा दाना २. कांच की गुरिया । उदा० गात में गुझौर परि अँगिया उमंग उरताय तनि पोही पीत पोति है तिफेरी की । —देव पोया-संज्ञा, पु० [सं० पोत] १. नया पौधा २. सांप का बच्चा ३ बच्चा, लड़का | उदा० १. देव दुकूल नये पहिरे, हिय प्रिय प्रेम के पोया । फूलि उठे - देव पर पौनछक संज्ञा, पु० [बुं०] बरात लगने सबसे प्रथम जलपान के लिए दी जाने वाली वस्तु । उदा० आदर अरु सनमान प्रीति सों प्रेम पौनछक श्रानी । —बकसी हंसराज पौनी-संज्ञा० स्त्री० [देश०] पुत्र जन्म और विवाह आदि में पुरस्कार लेने वाली धोबी; नाई आदि की स्त्रियाँ । उदा० रति लागे बौनी जाकी रंभा रुचि पौनी, लोचननि ललचौनी मुख जोति अवदात की । —देव प्रच्छ - वि० [सं० ] विवाद करने वाला, विवादी । उदा० कल्प कलहंस को, कि छोर निधि छबि प्रच्छ, हिम गिरि-प्रभा प्रभु प्रगट पुनीत है । - केशव प्रतिभट - संज्ञा, पु० [सं०] शत्रु, दुश्मन । उदा० प्रतिभट कटक कटीले केते काटि काटि कालिका सी किलकि कलेऊ देत काल को । फ फँदवार - संज्ञा, पु० [हिं० फंदा + वार = वाला ] फंदा लगाने वाला. बहेलिया । प्यौसाल - भूषरण दीन को दयाल प्रतिभटन को शाल करे । - केशव प्रबाल -- संज्ञा, पु० [सं० प्रबाल ] १. नवीन पत्ते, कोंपल २. मूंगा । उदा० तरुन तमाल तरु, मंजुल प्रबाल मीजि मंजरी रसाल बाल मंजी साल मंजी सी । -देव प्रलोक - संज्ञा, पु० [सं० पर् + लोक] दूसरा लोक, स्वर्गं । उदा० लोक की लाज को सोच प्रलोक को वारिये प्रीति के ऊपर दोई । —बोधा प्रवीन - वि० [सं० प्रवीण] १. चतुरा २. श्रेष्ठ वीणा । उदा० शिवसिंह सोहं सर्वदा, शिवा कि राय प्रवीन । —केशव प्रान-संज्ञा, पु० [सं० प्रारण] वायु, हवा 1 उदा० गुपित गुफान जोगी, भोगी लौ भखत प्रान, फँसे नहि फंद, जम फासी सी फनिंदी के । - देव घृष्ठता, > Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रौढ़ि - संज्ञा, स्त्री० [सं०] ढिठाई निर्लज्जता । उदा० और गूढ़ कहा कहीं जाहु, प्रौढ़ि रूढ़ जाने हौ । प्रेयस्वत्-- संज्ञा, पु० [सं०] एक प्रकार का अलंकार जिसमें एक भाव किसी दूसरे भाव या स्थायी भाव का अंग होता । मूढ़ हो जू, जानि केसीदास नीके करि - केशव उदा० जहाँ भाव में होय अंग और को और तहँ प्रेयस्वत कहि सोय गुनीभूत की व्यंग्य जह 'व्यंग्यार्थं कौमुदी' प्यौसाल - संज्ञा, पु० [सं० पितृ शाल ] मायका, पीहर, नहर | उदा० पिय बिछुरन को दुसह दुख हरष जात प्यौसाल । - बिहारी For Private and Personal Use Only उदा० देवजू दौरि मिले ढिग ज्यों मृग जे न दे फँदवार के फंदनि । - देव
SR No.020608
Book TitleRitikavya Shabdakosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishorilal
PublisherSmruti Prakashan
Publication Year1976
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size21 MB
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