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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिंगहु परकीति ( १४७ ) हिलना, गीधना, चसका लगना ।। उदा० ले परबी परवी न गनै कर बीन लिये उदा० 'द्विजदेव' जु सारद चंद्रिका जानि, चकोर परबीन बजावै । -देव चहँ परकेई रहैं। -द्विजदेव | परमोधना-क्रि०अ० [स० प्रमोद] प्रसन्न करना, परकीति-संज्ञा, स्त्री० [सं० प्रकृति] प्रकृति, फुसलाना, वश में कर लेना। _ स्वभाव, आदत। उदा० चहूँ और कौंधा चकचौधा लागै सूनी उदा० प्रतिमतवारे जहाँ दुरदै निहारियत तुरगन सेज स्याम सुखदाई दारी दासी परमोध्यो ही में चंचलाई परकीति है। -भूषण -गंग परचाना-क्रि० स० [सं० प्रज्वलन] १. जलाना परमोधु-संज्ञा, पु० [सं० प्रमुग्ध] बेहोश, २. क्रि० अ० [परचना] जलना । मूच्छित । उदा. आधे अन सुलगि, सुलगि रहे प्राधे, मानौं उदा० शत्रु चमू वर्णन समर लक्ष्मण को परमोधु बिरही दहन काम क्वैला परचाए हैं। -केशव -सेनापति परविष-संज्ञा, पु० [सं० पर= श्रेष्ठ+विष] २. किसुक अँगार मुख माँहि परचत है। तीव्र विष, उत्कट विष । -ग्वाल उदा. हाड़ से हाटक परविष से विषयरस परझाना-क्रि० स० प्रा० परज्झ] परचाना केसौदास ऐसैं सब संतोष बखानिय परतंत्र करना, पराधीन करना, वशीभूत -केशव करना । परा--संज्ञा, पु० [हिं० परिया, सं० पारि] १. उदा० द्वार उठि जात घुमि देहरी पै बैठि-जात प्याला, परई, दोये के आकार का मिट्टी का नैन अकुलात परझाये परझत नहीं। वर्तन २. पंक्ति, कतार ।। -नन्दराम | उदा० १. हौं तो सदा गरपरा तेरो परा भरो परतीत-संज्ञा, स्त्री० [बु०] १. कठिन प्रभाव दधि पाऊँ। -बक्सी हंसराज २. प्रतीति [सं० विश्वास । २. जोबन की जोति जाकी जीति की उदा० जानती जो इतनी परतीत तौ प्रीति की जगति कला, और कहा आइ परा बाँधि रीति को नाम न लेती । -ठाकूर कौन लरैगो। --गंग परदे- संज्ञा, पु० [फा० परिन्दः] पक्षी २. पर पराइछे--अन्य [सं० पराची] दूसरो और। या पंख देना। उदा. पाये सेख मीच के लिए। पुर पराइछे उदा० ईस हमैं परदे परदे सों मिलौं उड़ि ता डेरा किये। -केशव हरि सों परदेसों।। --दास परारष-संज्ञा, पु० [सं० पराद्धं] १. एक शंख परन-संज्ञा, पु० [सं० प्रण] टेव, पादत । की संख्या २. ब्रह्मा की प्राय का पाषा काल । उदा० कहै कबि गंग बन बीथिन परन परे, सुने । उदा० एक तें अनेक के, परारध लीं पूरो करि, के के छाँड़े दूने जंगली-जनावरनि । लेखो करि देखो, एक सांचो और सून है। गंग परनि-संज्ञा, स्त्री० [?] बोल, अावाज । परावन-संज्ञा, पु० [सं० पर्वन्] पर्व, उत्सव । उदा० १. मन की हरनि तैसी बरनी न पावै उदा० रति मन में उठावै जैसी परनि मृदंग की। भजे अँध्यारी रैनि मैं, भयोमनोरथ काज । -तोष . पूरे पूरब पुन्य ते; पर्यो परावन आज ।। सुखिर घन पाछी पाछी ठान सों बाँकी -मतिराम परन उठान सों। -घनानन्द परि-अव्य [सं० परं] निश्चय, पै। परबन-संज्ञा, पु० [सं० पर्व] १. कथानक । उदा० साँझ ही तौ सखिन समेटि करि बैठी कहा. २. ईख में दो गाँठों के बीच का स्थान । भेट करि पी सों परि पैठ सी भैजाइ लै । उदा० तजत न गाठि जे अनेक परबन भरे, आगे -पदमाकर पीछे और और रस सरसात हैं। --सेनापति ठाढ़ी गई ह तहाँ कर ठोढ़ी दै, पोढ़ि गई परबी-संज्ञा, पु० [सं० पर्व] १. वीणा के पर्दे परि लाल गढ़ी सी। -बेनी प्रवीन २. पर्व-त्योहार। परिगह-वि० [सं० परिग्रह] कुटुम्बी, परिवार -देव For Private and Personal Use Only
SR No.020608
Book TitleRitikavya Shabdakosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishorilal
PublisherSmruti Prakashan
Publication Year1976
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size21 MB
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