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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकुंठ ( २ ) अखेल पयान अकाथ । रही रोकि मग ग्वारिनी । उदा० मौजी मान सिंहावत रीझत जगत सिंह, नेहकारनी साथ ।। -दास बकसे तुरंग तुंग वै उठत अक्कासे । अकुंठ-वि० [सं०] जो मन्द न हो, उज्ज्वल, -पदमाकर अमंद । अखज-वि० [सं० अखाद्य] अखाद्य, न खाने उदा० पूरन परम ग्राम बैकुंठ अकुंठ धाम योग्य । लीने बिसराम प्रभु संपति अपांडिको उदा० भख मारत ततकाल ध्यान मुनिवर को धारत -देव बिहरत पंख फुलाय नहीं खज अखज विचारत । अकुताना--क्रि० प्र० [?] घबराना -दीनदयाल गिरि व्याकुल होना। अखतीज-संज्ञा, स्त्री [सं० अक्षय तृतीया] अक्षय उदा० सुनि अकुताने राजाराम । . तृतीया, आखातीज ।। भूलि गयौ तिहि बल धन धाम । ----केशव उदा० बाढ़ी अखतीज सी असाढ़ी अनबीज खेत, अकूठो-वि० [सं० आकुंठन] १. शुष्क, सूखा, दान दरसावनी सरस राखी रसमी । नीरस ०. बहुत अधिक, राशि, समूह । -देव उदा० जैसी करा उन प्रीति की रीति लखे पल है प्रखम-वि० [सं० अक्षम] अक्षम, अशक्त, असमर्थ बलि काठ अकूठो । --तोष उदा० मुकुतपुरी है जाके माँग महि खीन मध्य, अकैठे-वि० [सं० एक+इष्ट] १. एक मात्र, सोम सिव सोमा माह अँग न अखम है। २. एकत्रित । --बेनी प्रवीन उदा० आवत बात न कोऊ हिये, प्रखांगना-क्रि० स० [अं= अागम+हिं चित कैसे तजै कुलकानि अकैठे । खाँगना] –बेनी प्रवीन १. मारना २. वृद्धि करना [सं, प्र+हिं अकोति-वि० [हिं० अकूत] अपरिमित, असीम । खाँगना:-कम होना] उदा० कंधों सबै नखतान की ज्योति प्रकोति उदा० कहै पद्माकर अखाँग्यो तुम लंकपति हमहें विरंचि बटोरि धरी है। -रघुराज कलंकपति ह्व बोई अखाँग्यो है । प्रकोर-संज्ञा, स्त्री० [सं. अंकमाल] प्रालिंगन -पद्माकर की चेष्टा, छाती से लिपटने की मुद्रा। अखारा-संज्ञा, पु० [हिं, अखाड़ा] नाच, उदा, रीझ बिलोएई डारति है हिय, नृत्य २. रंगभूमि । मोहति टोहति प्यारी अकोरै। उदा० देखत हो हरि ! देखि तुम्हें यही होत है -घनानन्द प्रांखिन में ही अखारो। -केशव अकोरना--क्रि, सं. [सं० आक्रोडन, प्रा. अखिलमा--क्रि० अं०[हि प्रखरना] अखरना, अक्कोडण] इकट्ठा करना, संग्रह करना । कष्ट पाना, दुख पाना। उदा० पातम राम रमे, उठि अंत निरन्तर अन्तर उदा० सुचित गुबिंद ह्व के सेवते कहाँ धौं जाइ, ताप अकोरी । जल जंतु पंति जरि जैबे को अखिलती । अकोसना--क्रि० सं० [हिं० कोसना]--कोसना --पद्माकर शाप के रूप में गाली देना। अखेटक-संज्ञा, पु० [सं० पाखेटक] शिकारी उदा. रोसै भरि देवहि प्रकोसति इकोसे', फेरि बहेलिया । दौरी फिरै ब्याकुल बहीर सखियान की। उदा० बैननि मैन के बान चले, मृगनैननिह को -सोमनाथ खिलारू अखेटक । --देव अक्करी–वि० [हिं० अकड़] अकड़ वाली। उदा० फिरै चक्करी से गली सक्करी में । लिये अखेलत-वि० [स० अं०- केलि] बिना खेलते अक्करी ऐंड ज्यौं हिक्करी में। -पद्माकर हुए, अचंचल, भारी, गंभीर । २. आलस्यपूर्ण, उनींदा अक्कासे . संज्ञा, पु. [सं० आकाश] प्राकाश, | उदा० भारी रसभीजे माग भायनि भुजन भरे नभ । भावते सुभाइ उपभोग रस मोहगे । खेलत ही For Private and Personal Use Only
SR No.020608
Book TitleRitikavya Shabdakosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishorilal
PublisherSmruti Prakashan
Publication Year1976
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size21 MB
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