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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ अंगछ-संज्ञा, पु० [षडंग] षडंग, वेद के छः ३. गोरी अँगेठि अडीठि सी डीठि सुपैठि अंग-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द रह यो मन पीठ पनारी । -गंग तथा ज्योतिष । अंगोटना-क्रि० स० [सं० अग्र+हिं० ओट] उदा० अंग छबि लीन उति धुनि सुनिय न - घेरना, छेकना । मुख लागी अब लार है न नाकहू कौं उदा० हाथ मैं मालती माल लिये चली भीतर ज्ञान है। ताहि गोसांइ अँगोटी । -बोधा ___ सेनापति अइलाना-क्रि० अ० [हिं० ऐंडाना] ऐंडाना, अंचक-क्रि० वि० [हिं० अचानक] अचानक, टेढ़ा होना। सहसा, एकबारगी । उदा० जो तुम होह बड़े घर को उदा० अरु इक बंधु परोसति थारी । अइलात कहा हो, जगात न दैहौ। चली अंचकै उठि नव नारी ॥ -रसखानि -सोमनाथ अऊलना-क्रि० अ० [सं० उल्- जलना] १. अन्तरभाव--संज्ञा, पू० [सं० भावान्तर] भावा ग्रौलना, जलना, गरम होना २. छिलना, छिदना न्तर, भिन्नता, -अन्तर्भाव ।। आन्-अच्छी तरह शुलन] उदा० कछु पुनि अन्तरभाव तें कही नायिका जाहि उदा० छत आजु की देखि कहाँगी कहा छतिया बिना नियम सब तियन में सुन्यो कबीसन निति पैसे अऊलति है। -रघुनाथ पाहि । -दास प्रकनना-क्रि० स० [सं० प्राकान] कान लगा अंकावना-क्रि० स० [सं० अंकन] जाँच कर कर सुनना, प्राहट लेना। वाना, मूल्यांकन करवाना। उदा० अकनि अकनि रन परसपर, असिप्रहार उदा० प्रेम बजार के अन्तर सो पर नैन दलाल झनकार । -दास अंकावने है। -ठाकुर प्रकलैंनि--संज्ञा, स्त्री [हिं० अकेला] अनन्य अखांगी-वि० [सं० प्र+हिं० खाँगी=खडित] प्रेमिका, एकाकी साधिका । _ अखंडित, निरन्तर, लगातार । उदा, कान्ह परे बहुतायत मैं अकिलैनि की बेदन उदा० जाके मुख सामुहे भयोई जी चहत मुख, जानौ कहा तुम। -घनानन्द लीन्हो सो नवाइ डीठि पगनि अखाँगी री। अकस-संज्ञा, स्त्री [फा० अक्स-उलटा] बैर, -पद्माकर शत्रु ता । अंगेट-वि० [सं० अंग इष्ट] चुस्त, अंग के | उदा० मनु ससिसेखर की प्रकस किम सेखर सत लिए जितना उपयुक्त है। चंद। —बिहारी उदा० गाढ़ी अंगेट गढ़े से खएनि में, प्रकसीर-संज्ञा, स्त्री [अं०] १. रसायन, कीमिया ठाढ़े उरोजनि ठाढ़ी लज हैं ।-गंग २. अत्यंत गुणकारी । अंगेठी-वि० [सं० अंग+ इष्ट] १. चुस्त २. उदा० ग्वाल कवि गोरी द्रग तीर के. तसीर के स अत्यंत सुंदर ३.अंगदीप्ति । मोद मिलें जैसे अकसीर के, खमीरके । उदा० १. पातरी अंगठी ऑगी अंगहू सों लागी रहे । -ग्वाल -आलम प्रकाथ-क्रि० वि० [सं० अकार्यार्थ, हिं० २. कौल के से पात नैन पातरी अंगेठी है। अकारथ] ब्यर्थ, निष्प्रयोजन, वृथा। -पालम ] उदा० फेरि फिरन कों कान्ह कत करत For Private and Personal Use Only
SR No.020608
Book TitleRitikavya Shabdakosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishorilal
PublisherSmruti Prakashan
Publication Year1976
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size21 MB
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