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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir थपा ( १२० ) ध्यापक्ष उदा० थपनो न मोकों जग-जाल के जंजालन में, मोमें, गोबर न थाप्यो औं न खोयौ में याते अब नाम जमुना को रोज जपनो।। उकर है। -ग्वाल वाल थायी-वि० [सं० स्थायिन] स्थिर, स्थायी २. थपा--संज्ञा, पु० [अनु० थप] घड़ा पीटने की रहने वाला। मुंगरी, घड़ा थपथपाने की मोटी लकड़ी या उदा० बिसवासिन वह बैरिनि निदिया इकछन पिटना । रही न थाई। --बकसी हंसराज उदा० लसै गोल चौंरे मथं सुंम ऐसे । घड़े थोपवे थार-संज्ञा, स्त्री० [?] चोट आघात । के थपा होत जैसे । -पद्माकर उदा० बाजी खुर-थारनि पहार करै छार, गढ़ थरचरी-संज्ञा, स्त्री० [सं० स्थल+हिं. चरा] गरद मिलावै जोर जंगन जकत है । मैदान, पशुओं के चरने का मैदान । -चन्द्रशेखर उदा० कहै कबि गंग महागढ़ बढ़ अढ़ कीने मीडि थिगरी-संज्ञा, स्त्री० [बुं०] प्यौंदा, चकती। डारे चटपट चढ़ि थरचरी सी। -गंग उदा० बादर फटै धरनि पर बैठे थिगरी कौन थरहरे, वि० [प्रा० थरहरिन] कंपित काँपता लगावै। -बकसी हंसराज हुआ, हिलता हुप्रा । कवि ठाकुर फाटी उलंक की चादर देउँ कहाँ उदा० परे परजंक पर परत न पीके कर थरहरे कहें लौं थिगरी। ---ठाकुर छुवत बिछौना पै छरति है। -देव अरे हानि नही थिगरी पहिरे सिगरी बिगरी थलज-संज्ञा, पु० [सं०] गुलाब, एक पुष्प । जुन राम भजे । -सूरति मिश्र उदा० थलज को फूल कोन दारिम की कली कहा थित्त-वि० [सं० स्थित स्थित ।। बोलत ही चुयो परै सुधा से अधर तें। उदा० चरच्चि के ईसहिं थित्त आगें। बिनै करी -सुन्दर _ चित्तहिं हित्त पागें । -सोमनाथ मणिमय पालबाल थलज जलज रवि मंडल थीता-संज्ञा, पु० [सं० स्थित] स्थिरता, शांति, में जैसे मति मोहै कवितान की। -केशव चैन । थसरि-वि० [प्रा० थसल] विस्तीर्ण, शिथिल । उदा० थीतो परै नहि चीतो चवाइन, देखति पीठि उदा० पिचका लियेई रहे रहयौ रंग तोहि देखें, दे दीठि के पैनी। -देव रूप की धसक लागे थके हैं थसरि के। थुरहथी-वि० [हिं० थोड़ा+हाथ] छोटे हाथ -घनानंद वाली, जिसके हाथ में कोई वस्तु थोड़ी पावै। थांवरो-संज्ञा, पु० [हिं० थांवला थाला, पाल उदा० कन देबो सौंप्यौ ससुर बहू थुरहथी जानि । बाल, मिट्टी का घेरा जिसमें पौधा लगाया जाता थूहर-संज्ञा, पु० [सं० स्थूण] सेंहुड़ का वृक्ष । । उदा० बेद होत फूहर, थूहर कलपतरु, परमहंस उदा० कामना कलपतरु जानि कै सुजान प्यारो चूहर की होत परिपाटी को। -गंग सीचे घनानंद सँवारि हिय थावरों। थौंद-संज्ञा, स्त्री० [हिं० तोंद] पेट का अग्र -घनानंद भाग जो फुला रहता, पेट का फुलाव । थानुसुत-संज्ञा, पु० [सं० स्थाणुसुत] गणेश, उदा० मदजल श्रवत कपोल गुजरत चंचरीक गजानन । गन । चंचल श्रवण अनुप थौंद थरकति उदा० थोरे-थोरे मदनि कपोल फूले थूले-थूले डोलें मोहति मन । -सोमनाथ जल थल बल थानुसुत नाखे हैं। -केशव थ्यावस-संज्ञा, पु० [सं० स्थिर] स्थैर्य, शांति थापना-क्रि० सं० [सं० स्थापन] १. धाक धैर्य । जमाना, प्रतिष्ठा बढ़ाना २. पाथना, गोबर की उदा० बिन पावस तो इन थ्वास हो न, सु क्यों उपली बनाना ३. स्थापित करना । करिये अब सो परसैं । -घनानन्द उदा० १. लीजियो चुकाइ दधिदान मेरी ओर ह्व पावस परे हैं पूखी का वस पराये देस पावस कै, बाबा की दोहाई घाई पोढ़ी के कै मैं थ्यावस रहयो न विरहीन मैं । -पूखी थापने। बेनी प्रवीन २. ग्वाल कवि कहै एक घाटी तो जरूर For Private and Personal Use Only
SR No.020608
Book TitleRitikavya Shabdakosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishorilal
PublisherSmruti Prakashan
Publication Year1976
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size21 MB
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