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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६ संस्कृत भाषा में अनेक गद्य-पद्यात्मक काव्य लिखे थे, किन्तु प्राकृत में लिखने की भावना ही नहीं जगी थी। इस बार प्राकृत में लिखने की प्रेरणा प्रबल होती गई और प्रथम पुष्प के रूप में मैंने 'रयणवाल कहा' की रचना प्रारम्भ कर दी । 'समराइच्च कहा' की शैली का निर्वाह करते हुए मैंने इस रचना को आगे बढ़ाया । प्राकृत व्याकरण का ज्ञान सद्यस्क था ही, अतः व्याकरणगत अनेक शब्दों के प्रयोग स्वाभाविक थे । पाठकों की सुविधा के लिए शब्द सम्बन्धी सूत्रों को यथास्थान दे देने के कारण उनकी प्रामाणिकता असंदिग्ध बन गई है। प्राकृत शब्दों के साक्ष्य के लिए 'पाइयलच्छी नाममाला' का प्रयोग किया है और उसके पद्य टिप्पण में उद्धृत भी कर दिए हैं। मुझे सरल, सहज भाषा और छोटे-छोटे वाक्य बहुत पसन्द हैं । अतः मैंने इस काव्य में उस रुचिका निर्वाह किया है । समास की बहुलता और जटिलता तथा लम्बे वाक्य पाठक को भटका देते हैं, अत: उनका प्रायः वर्जन ही किया है । इसकी संस्कृत छाया मुनि गुलाबचन्द 'निर्मोही' ने अत्यन्त श्रम से तैयार की है । देशी शब्दों को उसी रूप में देकर, कोष्ठक ( ) में संस्कृत में भावार्थ दे दिया है । , Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसका हिन्दी अनुवाद आगम संपादन कार्य में संलग्न मुनि दुलहराज जी ने संपन्न किया है | हिन्दी का अनुवाद इतना सरस एवं सरल हुआ है कि पढ़ने वाले को अनुवाद-सा नहीं किन्तु स्वतन्त्र ग्रन्थ-सा प्रतीत होता है । इसकी भूमिका मुनि नथमल जी ने लिखी है । वे स्वयं प्राकृत, संस्कृत और हिन्दी के गंभीर विद्वान हैं। अपने व्यस्त समय में इस ग्रन्थ का अवलोकन कर जो दो शब्द लिखे हैं, मैं उनके प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ । अन्त में मैं लालमुनि, मूलमुनि तथा मोहनमुनि आदि सहयोगियों के प्रति हृदय से आभार प्रकट करता हूँ । आचार्य श्री तुलसी ने इस ग्रन्थ को देखकर प्रसन्नता व्यक्त की और मुझे प्राकृत भाषा में 'जयचरिअं लिखने के लिए प्रेरित किया। मैं उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ । मैं आशा करता हूँ कि यह ग्रन्थ प्राकृत भाषा के अध्ययनशील शिक्षार्थियों का पथ प्रशस्त करने में उपयोगी सिद्ध होगा और उनके विकास के लिए नए आलोक का सर्जन करेगा | बीदासर ( राजस्थान ) वि० सं० २०२७ फाल्गुन कृष्णा २ For Private And Personal Use Only - मुनि चन्दन
SR No.020603
Book TitleRayanwal Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmuni, Gulabchandmuni, Dulahrajmuni,
PublisherBhagwatprasad Ranchoddas
Publication Year1971
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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