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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वतः कभी-कभी एक छोटी-सी घटना भी विशेष प्रेरणा देने वाली हो जाती है । उससे सुप्त भावनाए जागृत हो उठती हैं और व्यक्ति उन भावनाओं को साकार करने के लिए उद्यत हो जाता है। प्राकृत भाषा के प्रति मेरा पुरुषार्थ ऐसी ही एक सुप्रेरणा का परिणाम है। उस समय मैं बम्बई में प्रवास कर रहा था । तीन वर्ष पूर्ण हो चुके थे। चौथे वर्ष का वर्षावास मैं 'विलेपारले' में बिता रहा था। साधनाश्रम का सुरम्यस्थल और नगीनभाई तथा सुशीलाबहन की भक्ति अपूर्व थी । एक बार मैं बाहर गया था। रास्ते में मुझे प्रोफेसर 'भियाणी' मिले। वे प्राकृत भाषा के गंभीर विद्वान एवं उसके अनन्य पक्षपाती थे । वार्तालाप के प्रसंग में उन्होंने कहा- “मुनिजी, मुझे अत्यन्त खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि प्राकृत भाषा के प्रति सर्वत्र उदासीनता है । यह भाषा सभी भाषाओं की जननी, सहज और बुद्धिगम्य है, फिर भी इसके प्रति उपेक्षा वरती जा रही है । और तो क्या-भगवान महावीर के अनुयायी भी इस ओर इतने प्रयत्नशील नहीं देखे जाते । जैन मुनि भी इसे प्रायः नहीं जानते और जो जानते हैं वे भी इसकी गहराई में प्रवेश नहीं कर पाते । मैंने अनेक मुनियों को इस भाषा के अध्ययन के लिए प्रेरित किया, किन्तु रुचि के अभाव में वे इस और विकास नहीं कर सके ।" प्रोफेसर भियाणी की यह कटूक्ति मुझे अक्षरशः सत्य प्रतीत हुई । अपने आगमों की भाषा मधुर प्राकृत के प्रति अपनी उदासीनता अनुचित एवं असह्य लगी, जबकि हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई और सिक्ख आदि अपनी-अपनी भाषा का कितना गौरव अनुभव करते हुए उसके प्रति जागरूक हैं। प्राकृत का अध्ययन : उस समय मेरी अवस्था ५१ वर्ष की थी। मैंने प्राकृत भाषाओं का मौलिक एवं गम्भीर अध्ययन किया। प्रारम्भ में मैंने कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र द्वारा रचित 'अष्टम अध्याय' को कण्ठस्थ किया । प्राकृत भाषा संबन्धी तथ्यों को जानकारी के बाद मैंने 'समराइच्च कहा,'पउमचरिअं' 'पासणाहचरिअं', 'गाहा सप्तसती' आदि ग्रन्थों का पारायण किया। अध्ययनकाल में प्राकृत में लिखने की प्रेरणा जगी। यद्यपि मैंने कुछेक वर्षों पूर्व For Private And Personal Use Only
SR No.020603
Book TitleRayanwal Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmuni, Gulabchandmuni, Dulahrajmuni,
PublisherBhagwatprasad Ranchoddas
Publication Year1971
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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