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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बोले हमें राज्य से क्या लेना देना? हम तो अकिंचन है, साधु है। तो गुरूदेव! आप मेरे योग्य आज्ञा फरमाईये। संप्रति राजा ने कहा । महानुभाव । पुण्य के प्रभाव से संपत्ति प्राप्त हुई है, इसे जिन शासन की प्रभावना में लगाओं बेजोड कार्य करो। गुरूदेव के आदेश का पालन कर उसने अपने जीवन में सवा करोड़ प्रतिमाएँ भरवाई और सवा लाख जिन मंदिरों का निर्माण करवाया। सम्राट संप्रति को दुबारा सद्धर्म की प्राप्ति हुई उसका मूल गुरूदेव का उपकार ही था। अपने उपकारी गुरूदेव के प्रति रही कृतज्ञता के कारण ही वे राज्य प्राप्ति के बाद भी जिन शासन प्रभावना के बेजोड़ कार्य कर सके थे। महावत के अंकुश के अधीन रहा हाथी आय/कमाई का साधन बनता है। मदारी के अधीन रहा बंदर और सर्प भी मदारी की कमाई का साधन बन जाता है। परन्तु वे ही स्वतंत्र हो तो भारी नुकसान कर देते हैं। इसी तरह मनुष्य पर भी गुरू आदि का अंकुश न हो तो नुकसान ही होता है। स्वच्छंदी स्वतंत्र पशु से जो नुकसान नहीं होता, उससे अनेक गुणा अधिक नुकसान स्वच्छंदी मनुष्य से होता है। हमारे जीवन की लगाम गुरू के हाथ में रहनी चाहिए। जीवन व्यवस्था को चलाने के लिए बड़ों के कठोर अनुशासन की आवश्यकता रहती है, परन्तु उस अनुशासन/नियंत्रण को वही मनुष्य स्वीकार करेगा। जो आत्म कल्याण का इच्छुक हो जिसे सम्यग्ज्ञान मिला हो। स्वच्छंदी को गुरू की हितकर बात भी अच्छी नहीं लगती। हकिकत में देखा जाय तो गुरू आज्ञा पालन में ही धर्म रहा हुआ है। गुरू की आज्ञानुसार किया गया एक छोटा सा अनुष्ठान भी महालाभ का कारण बनता है और उनकी आज्ञा का उल्लंघन कर किया गया बड़ा अनुष्ठान भी अहितकर ही बनता है। विधिपूर्वक की आराधना के लिए गुरू निश्रा और समर्पण भाव बहुत जरूरी है। जैसे किये हुए दुष्कृतगर्हापूर्वक की आलोचना गुरू की निश्रा/साक्षी में करनी होती है, वैसे जो धर्मकार्य करना है वह भी गुरू भगवंत को पुछकर उनकी संमति-आज्ञापूर्वक धर्माराधना करने से ही धर्माराधना फलदायी होती है। तभी तो कल्प सूत्र में तप आदि करने के लिए भी गुरू देव को पूछकर ही करने की For Private And Personal Use Only
SR No.020580
Book TitlePriy Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasagar
PublisherPadmasagarsuri Charitable Trust
Publication Year2006
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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