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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra (8) www. kobatirth.org पाशा इव संगमा ज्ञेया: “संग मात्र बंधन जानना ( समजना ) " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुख शब्द में मात्र दो अक्षर हैं, किन्तु उस छोटे से शब्द ने कीट-पतंगे से लेकर विशालकाय प्राणी हाथी तक को अपनी ओर आकर्षित कर लिया हैं। सुख के आस्वादन की बात तो दूर रही, उसकी प्राप्ति की आशा भी प्रत्येक प्राणी को उत्साहित कर जाती है। भले ही चाहे वह सुख, मृग-जल रूप हो, अथवा सुखाभास रूप क्यों न हो ! छोटे जन्तु से लेकर बड़े-बड़े जीव मात्र की इच्छा सुख प्राप्त करने की और दुःख से छुटने की हैं। परन्तु ध्यान रखना केवल इच्छा मात्र से कार्य सिद्धि नहीं हो जाती है। कार्य सिद्धि के लिए / वास्ते तद् योग्य कारण सामग्री की आवश्यकता / जरूरत भी रहती ही है। एक भी कारण के अभाव में कार्य की समाप्ति संभव नहीं है । बेचारी चींटी ! थी कि मधुर खुश्बु से आकर्षित होकर उस ओर भागती है दिल में एक ही तमन्ना है, घी रूप सुख को पाने की और उसकी यह तमन्ना आकाश में बिजली की भाँती पल भर में ही लुप्त हो जाती है। वाह रे ! जिस से सुख प्राप्त करने की आशा थी वो ही घी जीवघातक सिद्ध हो गया। चींटी को घी से सुख मिलना तो दूर रहा बल्कि इस घी ने ही उसके प्राण ले लिये। सत्य दृष्टि से सोचेंगे तो मालुम होगा कि चींटी के लिए घी का संग सुख रूप नहीं, बल्कि दुःख रूप ही था। उस भँवरे की ओर तो जरा नजर करो। कमल की सुवास में आसक्त होकर उसी में लगा रहा । ज्यूं ही सूरज डूबा कमल की पंखुडियाँ भी बंद हो गयी। सख्त लकडी में छेद करने वाला भँवरा सुकोमल पंखुडियों को छेद न सका, भेद न सका और अंत में उसे मृत्यु को भेटना पडा । बेचारे उस भोले भाले हिरण को कहां पता होता है कि उसे जो सुरीला मधुर कर्णप्रिय संगीत सुनाई पड़ रहा है वह सुखद नहीं अपितु दुःखद ही है । वह संगीत नहीं अपितु मौत की घंटियाँ ही है। हकिकत में संग के सुख की लालिमा, दुःख की कालिमा लाने वाली होती है। वे अज्ञानि पशु भूल कर बैठते हैं इसमें आश्चर्य नहीं है परन्तु आश्चर्य तो यह है 54 For Private And Personal Use Only
SR No.020580
Book TitlePriy Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasagar
PublisherPadmasagarsuri Charitable Trust
Publication Year2006
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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