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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हुई है, किन्तु वह अदृष्य होती है, यदि उसे प्रगट करना हो तो घर्षण जरूरी है। घर्षण के बिना उसमें छिपी आग प्रगट नहीं होती। दहीं के कण-कण में नवनीत छिपा हुआ है, यदि उसे प्रगट करना हो तो मन्थन जरूरी है, मन्थन के बिना दहीं में छिपा हुआ नवनीत प्रगट नहीं होता। इसी प्रकार हमारे तन में भी आत्म-तत्त्व छिपा हुआ है। यदि उसे प्रगट करना हो तो साधना आराधना जरूरी है, साधना के बिना वह प्रगट नहीं होती। सूर्य का प्रकाश तो अपने आप में अनूठा अद्भुत और अद्वितीय ही होता है। अतः हजारों-हजारों मशालें जलें तो भी वे एक सूर्य के प्रकाश की बराबरी कभी नहीं कर सकती। चन्द्रमा की चाँदनी भी अपने आप में अनूठी, अद्भूत और अद्वितीय होती है। अतः आसमान में हजारों-हजारों सितारे/तारे टिमटिमाएँ तो भी वे चन्द्रमा की चाँदनी की बराबरी नहीं कर सकते। सागर की विशालता भी अपने आप में, अनूठी, अद्भूत और अद्वितीय ही होती है। अतः हजारों-हजारों जलधाराएँ भी मिले तो भी वे सागर की विशालता की बराबरी नहीं कर सकती। इसी प्रकार आत्मा का स्वरूप भी अपने आप में अद्भूत, अनूठा और अद्वितीय होता है। अतः हजारों-हजारों भौतिक वस्तुएँ इकट्ठी की जाएँ तो भी वे आत्मा के स्वरूप की बराबरी नहीं कर सकती। अत्तावगमो नज्जई, सयमेव गुणेहिं कि बहुभणसि? सूरूदओलक्खिज्जई नतुसवहनिवहेण।। आत्मावबोध कुलक ग्रन्थ में पूज्य आचार्य श्री जयशेखरसूरिजी महाराज ने कहा है। आत्मावबोध हुआ है या नहीं उसका प्रमाण बोलने से नहीं होता है, परन्तु उसके गुणों के अनुभव से होता है। दुनिया के सभी विषयों पर भाषण करके शायद उस विषय में जानकारी प्रगट की जा सकती है, परन्तु आत्मस्वरूप की जानकारी बहुत बोलने से हुई हो ऐसा नहीं कह सकते। अंधा व्यक्ति रंगों का वर्णन कर सकता है फिर भी उसे उसकी अनुभूति नहीं है। जब कि देखने वाले मनुष्य को उसके रंगों की साक्षात् अनुभूति हो जाती है। इसलिए उसे वर्णन की जरूरत नहीं है। मतलब कि जो अनुभवों के स्तर -215 For Private And Personal Use Only
SR No.020580
Book TitlePriy Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasagar
PublisherPadmasagarsuri Charitable Trust
Publication Year2006
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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