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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छद्मस्थ नहीं कर सकते। इसीलिए कहा साधकों के लिए शास्त्र ही आधार है। दुनिया में दृष्टिगत प्राणि-सृष्टि को तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं। (1) संज्ञा प्रधान (2) प्रज्ञा प्रधान (3) आज्ञा प्रधान । वृक्ष की जड़ें पानी वाले भाग की तरफ मुडी हुई होती है, और उसी तरफ रफ्तार से आगे बढ़ती हैं। एक वनस्पति का पौधा आता है जिसका नाम है छुई मूई अगर उसके पत्तों को छुआ जाय तो वे डर/भय के कारण संकुचित हो जाते हैं। जमीन में धन गड़ा हुआ हो तो कई वनस्पतियाँ उसके इर्द-गिर्द जड़ें फैला कर रहती है। जहाँ धन गडा हो वहाँ आसपास में अधिकांस समय प्रायः हरि वनस्पति ऊगी हुई रहती है, इसका मूल कारण लोभ संज्ञा है। वनस्पति में शब्द ग्रहण की शक्ति भी होती हैं, अगर पौधों के निकट में संगीत बजता हो तो वे पौघे किसी और दिशा में न झूककर जिस ओर संगीत बज रहा था उसी दिशा में झूक जाते हैं। कुछेक वनस्पतियाँ नवयौवना स्त्री के पाँव की आहट से पल्लवित हो उठती है यह मैथुन संज्ञा का संकेत है। (2) प्रज्ञा प्रधान, अधिकांश संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव अपनी प्रज्ञा/बुद्धि के अनुसार प्रवृत्ति करते हैं, जिनाज्ञानुसार नहीं। जो बात अपनी बुद्धि में बैठ जाय, तदनुसार ही प्रवृत्ति और निवृत्ति करते रहते हैं। दुनिया में ऐसे प्रज्ञा प्रधान लोग बहुत है, जो धर्म के विषय में, चक्षु अगोचर पदार्थों के बारे में अपनी मति के अनुसार चलने वाले होते हैं। जिन वचन के उपर विश्वास, श्रद्धा व आस्था के अभाव के कारण वे धर्म के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के तर्क-कुतर्क करते हैं। वनस्पति सब्जी आदि को काटते हैं परन्तु उसमें जीव तो दिखते नहीं है। कच्चे पानी में जीव तो दिखते नहीं है फिर भी कहते हैं कि उसमें असंख्य जीव है, अतः इसमें असंख्य जीव है ऐसा मानना गलत है। स्वर्ग नरक यहाँ ही है, और कोई लोक नहीं है अतः पुण्य पाप का फल यहाँ ही मिलता है। मोक्ष किसने देखा है। मोक्ष जैसी कोई चीज नहीं है। • ये बुद्धिमान गिने जाने वाले लोगों की बुद्धि के प्रदर्शन है। (3) आज्ञा प्रधान जीव, सर्वज्ञ परमात्मा के शासन (जिन शासन) की प्राप्ति को अतीव दुर्लभ माना गया है। बाहय दृष्टि से सर्वज्ञ के शासन को पा लेने पर भी सर्वज्ञ कथित 1901 For Private And Personal Use Only
SR No.020580
Book TitlePriy Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasagar
PublisherPadmasagarsuri Charitable Trust
Publication Year2006
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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