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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रहता है। गुलाब जामून, रसगुल्ले, रसमलाई या बादाम का सीरा खाए, तब भी यह शरीर तो उसे विष्टा में ही बदलता है। बढ़िया से बढ़िया सरबत, ज्युस पिया हो फिर भी वह कुछ घडियों में मुत्र में ही बदल जाता है। इस शरीर के संपर्क में आने वाले वस्त्र भी कुछ महिनों में चिथड़े बन जाते है। शरीर के संपर्क में आने वाला इत्र और सेन्ट भी कुछ देर बाद बिगड़ जाता है। यूं हमारे संपर्क में आने वाली सभी चीजों को शरीर बिगाड़ता ही है, फिर भी हमें अपने शरीर के उपर सब से अधिक राग है। सबसे अधिक राग शरीर पर होता है। इसीलिए उपाध्यायजी महाराज ने धनादि नहीं कहकर के शरीरादि की आशक्ति कम करने की प्रेरणा दी है। राग का केन्द्रस्थान शरीर है। शरीर है तो धन है, धन है तो मकान है, शरीर के लिए ही सब है। मकान-दुकान, धन परिवार शरीर आदि के उपर मनुष्य को अत्यधिक आशक्ति होती है। आशक्ति होना स्वाभाविक है, क्योंकि सांसारिक जीवन के मूल स्त्रोत वहाँ से जूडे है। जीवन व्यवहार चलाने के लिए धन चाहिए। धन प्राप्त करने के लिए दुकान चाहिए। रहने के लिए मकान चाहिए। सहानुभूति और मानसिक आश्वासन के लिए परिवार चाहिए। यह सब किस के लिए चाहिए? शरीर के लिए ही चाहिए। मतलब धनादि से भी शरीर का राग प्रबल होता है। अभी अपना सारा जीवन शरीर पर ही केन्द्रित बना हैं। हम जानते भी है और बोलते भी है कि जो शरीर है वह मैं नहीं हूँ फिर भी शरीर की रागदृष्टि टलती नहीं है। इस बात से यह सिद्ध होता है कि शरीर का राग तोड़ना कितना कठीन है। "देहे रोग भयम्" शरीर के साथ रोग का भय जुड़ा हुआ है। यह शरीर पाँच करोड़ अडसठ लाख नव्वाणु हजार पान सौ चोरासी (5,68,99,584) रोगों से घिरा हुआ है। नरक में ये सारे रोग एक साथ उदय में आते है। इन रोगों को हमने असंख्य काल तक सहन किये हैं। सनत्कुमार चक्रवर्ती ने सोलह-सोलह वर्ष तक सात सौ रोगों को मित्र भाव से सहा था। ऐसे भी गंदा बिगड़ा हुआ, विकृत शरीर रोगादि से नाश होने ही वाला है, तय ही है तो फिर इस शरीर से रोगादि के कारणभूत अशातावेदनीय कर्मनाश होता हो तो गलत क्या है? इस अशुचिमय शरीर का यही सार्थक उपयोग है। शरीर में रोग आते हैं और आयेंगे उसके सामने कोई |145 For Private And Personal Use Only
SR No.020580
Book TitlePriy Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasagar
PublisherPadmasagarsuri Charitable Trust
Publication Year2006
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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