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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तब राजा ने दमन किया है, और अभी कौन दमन कर रहा है? आप ही बता दो। परन्तु ऐसे दमन का कुछ मूल्य नहीं है। क्योंकि तब अपनी लाचारी, मजबूरी थी। तब अपने पास दूसरा विकल्प नहीं था, पर अभी स्वेच्छा से मन, इन्द्रियों आदि का दमन करें तो दिव्यता, तेजस्विता प्रगट होगी। हॉमवर्क आने वाले कल के क्लास की तैयारी है, वैसे इस भव का आत्मदमन/नियंत्रण और विसर्जन आगामी भव की तैयारी है। अच्छा हॉमवर्क करने वाला अच्छी तरह से पढ़ सकता है। इस भव में हॉमवर्क रूप में कषायादिका दमन-शमन, विसर्जन करने वाला बाद के भवों में और भी अच्छी तरह से विषय-कषाय को त्याग सकता है, साधना में आगे बढ़ सकता है, और आत्मकल्याण में प्रगति साध सकता है। विद्या चाहिए, परंतु लेशन करना नहीं है यह बात विद्यार्थी के लिए अयोग्य गिनी जाती है, वैसे परलोक में सद्गति चाहिए पर इस भव में संसार के दुःखों को बढ़ाने वाले विषय-कषाय की प्रवृत्ति भी छोडनी नहीं है। जिसे पढ़ना नहीं है उसे विद्यार्थी कैसे कह सकते है? सिर्फ नाम का ही विद्यार्थी न । भिखारी को पूछ। तुमने अपने पुत्र का नाम वैभव क्यों रखा? भिखारी ने कहा-मुझे भी कम से कम यह संतोष रहेगा कि मेरे पास भी वैभव है इसलिए। इन्द्रियों के तो गुलाम बने हैं और कहलाते है जैन। उस भिखारी को वैभव नाम से संतोष मान लेना है, वैसे अपने को भी केवल जैन शब्द से ही संतोष मानना हैं? हितकर और सुखकर की चतुर्भगी समझ में आ जाए तो हम हितकर और सुखकर प्रवृत्ति कर सकते हैं। जो प्रवत्ति इस लोक के सुख के लिए ही हो वह सुखकर है, और जो प्रवृत्ति परलोक को सुधारने वाली बने वह हितकर है। (1) कितनीक प्रवत्तियाँ सुखकर है, पर हितकर नहीं, जैसे कि शरीर की अपेक्षा से होटल का खाना, आत्मा की अपेक्षा से अनीति। (2) कितनीक प्रवृत्तियाँ सुखकर भी नहीं और हितकर भी नहीं है। जैसे शरीर की अपेक्षा से जहर और आत्मदृष्टि से संघर्ष क्रोधादि। (3) कितनीक प्रवत्तियाँ सुखकर - .. -129 For Private And Personal Use Only
SR No.020580
Book TitlePriy Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasagar
PublisherPadmasagarsuri Charitable Trust
Publication Year2006
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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