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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org सर्वज्ञ कथित शास्त्रों का विपरीत अर्थ करती हैं। वे आत्माएँ स्वच्छन्दी होती है। न तो उनमें गुणीजनों के प्रति आदर भाव होता है और न ही क्रोध के प्रसंग में क्षमा भाव। क्योंकि भगवान की आज्ञा का प्रेम नहीं है । अपने बड़प्पन की डींग हांकना, दूसरों से द्रोह रखना, झगड़ा करना, दम्भयुक्त जीवन, पापों को छिपाना, गुणानुराग से रहित, उपकारी को भूल जाना, पाप के अनुबंध पड़ने की चिता नहीं करनी, शुभ क्रियाओं में चित्त की एकाग्रता न रखना अविवेक युक्त प्रवृत्ति करना इत्यादि मोह गर्भित वैराग्य के लक्षण है। ये दोनों ही प्रकार के वैराग्य त्याज्य है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (3) ज्ञान गर्भित वैराग्य। सम्यक्त्व के कारण जिसे जिन प्ररूपित तत्वों का यथार्थ बोध हुआ हो, जो सदैव मोक्षमार्ग के उपाय में उद्यमशील हो, और तत्त्व जानने का अर्थी हो ऐसी आत्मा का वैराग्य ज्ञान गर्भित कहलाता है। यह ज्ञान गर्भित वैराग्य गीतार्थ ( स्व पर शास्त्र के यथार्थ ज्ञाता) और गीतार्थ की निश्रा (आज्ञा पालन) स्वीकार करने वाले को कहा गया है। ज्ञान गर्भित वैराग्य के कारण आत्मा में अनेक गुण प्रकट होते है। ज्ञान गर्भित वैराग्य वाला सुक्ष्म चिंतन वाला होता है, मध्यस्थ होता है, उस आत्मा को किसी प्रकार का कदाग्रह नहीं होता है। वह क्रिया में आदर वाला, लोगों को धर्म में जोड़ने वाला, दूसरों की बुराई देखने में अंध, दूसरों की बुराई करने में मूक और निंदादि सुनने मे बधिर होता है। निर्धन मनुष्य जैसे धन पाने के लिए सतत् प्रयत्न करता है वैसे वह भी क्षमादि गुणों को प्राप्त करने के लिए निरंतर प्रयासरत होता है। विनम्र और इर्ष्या रहित होता है। वैराग्य में इतनी उंचाई न हो तो भी कम से कम राग की अल्पता अनाशक्ति रूप वैराग्य तो होना ही चाहिए। जिन वचनों को पूर्ण श्रद्धा और आस्था पूर्वक स्वीकार कर अपने जीवन में ज्ञान गर्भित वैराग्य को पुष्ट करने का प्रयास करें यही मंगल अभिलाषा । 124 For Private And Personal Use Only
SR No.020580
Book TitlePriy Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasagar
PublisherPadmasagarsuri Charitable Trust
Publication Year2006
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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