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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०४ सू०७ 'परिग्रहविरमण'नामकप्रथमभावनानिरूपणम् ८९७ काँस्तान् कथम्भूताँस्तान् शब्दान् इत्याह- ' अकोसफरुसखिसणअत्रमाणणतज्जणनिमंछणंदित्तवयणतासणउक्कूजियरुण्णरडियकंदियणिग्धुट्ठरसियकलुणविलवियाई ' आक्रोशपरुपखिसनावमाननतर्जननिर्भर्त्सनदीप्तवचनत्रासनोत्कूजितरुदितरटितक्रन्दितनिर्युष्टरसितकरुणविलपितानि-तत्र-आक्रोशः = ' रे दुष्ट ! म्रियस्वे ' त्यादिवचनम् , परुष-रे मूर्ख ! रे चौर! इत्यादि, खिंसनम्-निन्दावचनं 'कुशीलोऽसि, निर्लज्जोऽसी' त्यादिरूपम् , अवमाननम् अपमानजनकवचनं, त्वङ्कारादिरूपम् , तर्जनम्-'ज्ञास्यसि रे दुष्ट ! ममावज्ञायाः फलम् ' इत्यादिरूपम्निर्भत्सनम् असर रे निर्दय ? मम दृष्टिपथादित्यादिरूपम् , दीप्तवचनम् कुपितवचनम्-त्रासनम् अन्धकारादौ फेत्कारादिरूपः शृगालादिशब्दः, उत्कूजितम्निमित्त वे उन अमनोज्ञ पापक शब्दों को कहते है-(अकोसफरस-खिसण-अवमाणण- तज्जण-निन्भच्छण-दित्तवयण-तासणउक्कूजिय-रुण्ण-रडिय-कंदिय--णिग्घुट्ठ-रसिय-कलुण-विलवियाई) 'रे दुष्ट ! मर जा' इत्यादि प्रकार के जो शब्द होते हैं-वे आक्रोश शब्द हैं, कठोर शब्दों का नाम परुष है-जैसे-'ओ मूर्ख ! अरे ओ चौर !' आदि । निंदात्मक शब्दों का नाम खिसन है, जैसे-'तु बडे खोटे स्वभाव का है, तू बड़ा बे शरम है ' इत्यादि । 'तू' आदि शब्द अपमान जनक शब्द हैं। जिन शब्दों से दूसरों को डाटना होता है वे तर्जना शब्द है, जैसे-'ओ दुष्ट ! अवज्ञा करने का फल मैं तुझे बताऊँगा। तथा 'ओ निर्दय । मेरे सामने से हट जा' इत्यादि प्रकार के वाक्य निर्भत्सन वाक्य कहलाते हैं । कुपित वचनों का नाम दीप्तवचन है । अंधकार आदि में फुत्कार आदि रूप शब्दों का नाश पा५४ शहीने मतावे छे.." अक्कोस-फरुस-खिसण-अवमाणण-तज्जणनिब्भच्छण-दित्तवयण-तासण-उक्कृजिय-रुण-रडिय-कंदिय-णिग्धु-रसिय-कलण -बिलवियाई" "! भरी" त्यात प्रा२न शहाने माोश शर्ट કહે છે, કઠોર શબ્દોને પરુષ શબ્દો કહે છે, જેવાં કે “એ મૂર્ખ ! અરે એ या " 26 ५२५ Ava! . " तुं ! २५ स्वभावाणी छ, तु घ! मेशरम छ" मा निहाम होने मिसन ४९ छे. “तु, माहि २५५માનજનક શબ્દો છે. જે શબ્દો દ્વારા બીજાને ધમકી અપાય છે તે શબ્દોને તર્જના શબ્દ કહે છે, જેવાં કે “રે દુષ્ટ મારી અવજ્ઞા કરવાનું ફળ હું તને ચખાડીશ”. તથા “અરે નિર્દય! મારી નજરથી દૂર થા” ઈત્યાદિ પ્રકારનાં વાક્યને નિર્ભત્સના વાક્ય કહે છે. કોંધયુક્ત વચને તપ્ત વચન કહે છે. प्र ११३ For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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