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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८९६ प्रश्नव्याकरणसूत्रे " यन मोहितव्यम् - तत्र मोहो न कर्तव्य इत्यर्थः तथा - 'विणिधाय' विनिघातः =तदर्थं चारित्रभ्रंशः, आवज्जियध्वं ' आपत्तव्यः = कर्तव्यइत्यर्थः, तथा - 'न लुभिrot' न लब्धव्यम् = लोभो न कर्तव्य इत्यर्थः ' न तुसियच्वं 'न तोष्टव्यम्मनोज्ञशब्दादिषु प्रसन्नमनसा न भाव्यमित्यर्थः, तथा - ' न हसियव्वं 'न हसि - तव्यम् = विस्मयेन हासो न कर्तव्यः, तथा - श्रमणः 'तस्थ' तत्र - मनोज्ञभद्रकशब्द विषये 'सई' स्मृर्ति - स्मरणं च ' मई ' मर्ति बुद्धिनिवेशं च 'न कुज्जा' न कुर्यात् । पुणरवि य' पुनरपि चामनोज्ञादि शब्दविषये मोच्यते ' सोइंदिएण ' श्रोत्रेन्द्रियेण 'सोचा ' श्रुत्वा 'सद्दाई' शब्दान् कीदृशान् ? ' अमणुष्णपावगाई ' अमनोज्ञपापक न्=अमनोज्ञा:= अमनोहरा अतएव पापकाः =अशुभास्तान् ' किं ते ' ललचाना नहीं चाहिये, ( न मुज्झियव्वं ) उनमे मोह नहीं करना चाहिये, (न विणिधाय आवज्जियव्वं ) उनके निमित्त अपने चारित्र को भ्रष्ट नहीं करना चाहिये, ( न लुभियव्वं ) उनमें लुभाना नहीं चाहिये, ( न तुसियव्वं ) उनसे प्रसन्नमन नहीं बनाना चाहिये, (न हसिraj ) हंसना नहीं चाहिये; और ( न सई च तत्थकुज्जा ) न उन मनोज्ञशब्दादिकों की याद करना चाहिये और न उनमें अपनी बुद्धि को ही लगाना चाहिये । इसी प्रकार ( पुणरवि य) फिर ( सोइदिएण ) श्रोत्र इन्द्रिय से ( अमणुण्णपावगाई ) अमनोज्ञ अतएव अरुचि कारक अशुभ (साई) शब्दों को ( सोच्चा) सुनकर साधु का कर्तव्य है कि वह उन पर द्वेष भी न करे - नाक मुँह न सिकोडे, इसी विषय को अब सूत्रकार इन पंक्तियों द्वारा स्पष्ट करते हैं - वे कौन से हैं इस शंका के समाधान ४२वो लेड मे मेटले हे सतावु लेह मे नहीं. "न मुझिय તેમનામાં मोह रखे। लेहो नहीं. "न विणिधायं आवज्जियन्त्र" तेमना निमित्ते पोताना चारित्रने भ्रष्ट वु लेई से नहीं, "न लुभियव्व" तेमां ससथातुं लेई रखे नहीं. न तुसियन्त्र " तेमां भनने प्रसन्न राम हो नहीं. "न हसि - यव्व' ” इसवु लेखे नहीं, भने “न सई च मई ज तत्थ कुज्जा મનાજ્ઞ શબ્દાદિકોને યાદ કરવા જોઈએ નહીં. અને તેમાં પેાતાના મનને थेयावा हेवु नहीं'. ४ प्रमाणे 'पुणरवि य" वजी " सोइदिएण " श्रोत्रे. " "" " 22 ते न्द्रियथी " अमणुण्णपावगोई ” અમનેાના અને તે કારણે અરુચિકારક અશુભ 66 सहाई ” शाम्होने “ सोच्चा " सांलजीने तेना प्रत्ये द्वेष यायु न श्वा જોઈએ તે સાધુનું કર્તવ્ય છે-તેના તરફનાં તિરસ્કારથી નાક કે માતુ સ ંકેાચવું બગાડવું જોઈ એ નહી, એ જ વિષયને સૂત્રકાર આ પંક્તિઓ દ્વારા સ્પષ્ટ કરે છેતે કયા કયા પ્રકારના છે તે શકાના નિવારણના માટે તેઓ તે અમ For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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