SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 890
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०५ सू. ६ परिग्रहविरमणनिरूपणम् अविरतिषु अविरतिरूपेण भगवता कथितेषु प्राणातिपातादिषु च, तथा-'अण्णेसु य' अन्येषु च ' एवमाइएमु' एवमादिकेषु एवं विधेषु — बहुमु टाणेसु ' बहुषु स्थानेषु-अनेकविधेषु पदार्थेषु संख्यास्थानेषु वा चतुस्त्रिंशदादिषु, कीदृशेष्वेषु ? 'जिणपसन्थेसु ' जिनमशस्तेपु-जिनकथिनेषु, अतएव-'अवितहेसु' अवितथेषु-सत्येपु, पुनः- सासयभावेसु ' शाश्वतभावेषु-ओघतोऽक्षयस्वभावेषु, अतएव-' अवटिएमु ' अवस्थितेषु-सर्वदा भाविषु 'संकं' शङ्का सन्देह, 'ख' काक्षा=परमतवाञ्छां 'निराकरित्ता' निराकृत्य-दूरीकृत्य श्रमणैः, 'सदहति' श्रद्दधाति ' भगवओ ' भगवतो जिनस्य ' सासणं ' शासनम् कीदृशः सन् श्रमणो जिनस्य शासनं श्रधातीत्याह - 'अणियाणे ' अनिदानः =देवदिवाञ्छारहितः, ' अगारवे ' अगौरवः= ऋद्धयादिगौरववर्जितः, 'अलुद्धे ' अलुब्धा-विषयेष्वलम्पटः 'अमूढे' अमूढः, तथा-'मणोक्यणकाय. एकाग्रतारूप प्रणिधानों में ( अविरइसु ) भगवान के द्वारा अविरतरूपसे कथित प्राणातिपात आदिकों में तथा ( अण्णेषु य एवमाइएसु) और भी इसी तरह के दूसरे ( बहुमु द्वाणेलु) अनेक पदार्थों में अथवा (जिणे पसत्थेसु) चौतीस आदि संख्यास्थानों में जो कि जिनकथित हैं और इसी कारण ( अवित हेसु ) जिन में अमत्यता का थोड़ा साभी स्थान नहीं, अर्थात् सर्वथा सत्य हैं, तथा (सासयभावेसु) सामान्यकी अपेक्षा जिनका अक्षय स्वभाव है, और इसीसे (अवट्टिए) जिनकी सत्ता सदा रहती है उनमें (संकं) शंका-संदेहो ( कंग्वं ) काक्षा-परमतवांछा को (निराकरित्ता ) दूर करके जो श्रमण ( अनि याणे) निदान-देव र्यादि प्राप्तिकी इच्छा से विहीन बन कर ( अगारवे ) ऋयादि गौरव से रहित हो कर ( अलुद्धे ) विषयों में लंपटतासे रिक्त होकर और “ अविरइसु " नपान द्वारा भवि२त३थे अथित प्रातिपात मा तथा " अण्णेसु य एवमाइएसु" मी ५५ मे प्रारना बहुसु द्वाणेसु" भने पहाभा अथवा “जिणपसत्थेसु" यात्रीस माह सध्या स्थानामा थित छ भने में आरणे " अवितहेसु” भनामा मसत्यतार्नु । ५५ स्थान नथी सटोरे सपथा सत्य छ, तथा “सासय भावेसु" सामान्यनी अपेक्षा निन! २१क्षय स्खला छ, भने तेथी। " अवट्रिासु" नी सत्ता सह। २ छे, तेमनामा “संके" -सहेडने " कखं" क्षा-५२मत पायनाने 'निराकरित्ता' २ रीने २ श्रम " अनियाणे " निहान-हेवादिप्रालिनी स्थिी २डित मनीन “अगारवे" ऋद्धयादि मौरपथी २हित ने “ अलुध्धे ” विषयानी साससाथी रहित प्र १०६ For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy