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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदशनीटीका अ० ३ सू०११ अध्ययनोपसंहारः ७६९ 'सुदेसियं ' सुदेशित-सदेवमनु नामुरायां पर्पदि सुष्ट्रपदिष्टम् ‘पसत्य' प्रशस्तंसर्वप्राणिहितकरत्वान्मङ्गलमयं तइयं संसदारं ' तृतीयं संवरद्वारं ' समत्तं' समाप्तम् । 'त्तिबेमि' इति ब्रवीमि । अस्यार्थः पूर्वमुक्तः ॥ मू. ११ ॥ इति श्रीविश्वविख्यात-जगदूवल्लभ-प्रसिद्धवावकपञ्चदशभाषाकलितललितकला पालापा-प्रविशुद्वगवगवनैकग्रन्थनिर्मापक-बादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रप. तिकोल्हापुरराजमहत्त- जैनशास्त्राचार्य ' पदभूपित-कोल्हापुरराजगुरु-बालयमचारि-जैनाचार्य-जयमदिवाकरपूज्यश्री-घासीलालप्रतिविरचितायां दशमाङ्गस्य श्री प्रश्नव्याकरणसूत्रा र सुदर्शन्यास्थायां पाख्यायां संवरात्माके द्वितीयेभागेऽदत्तादान विरमणनामकं तृतीयं संवरद्वारं समाप्तम् ॥ सर्व भाव से इसके विषय में कहा है और (सुदेसियं ) देवों, मनुजों तथा असुरों से युक्त परिषदा में इसका उपदेश दिया है । ( पसत्यं ) सर्वप्राणीयों का हितकारक होने से मंगलमय है ( तइयं संवरदारं समत्तं ) यह तृतीय संवर द्वार समाप्त हुआ (त्ति बेमि ) ऐसा मैं कहता हूं। अर्थात् हे जंबू ! इस तृतीय संवर द्वार का जैसा कथन मैंने साक्षात् भगवान महावीर के मुख से सुना है वैसा ही मैंने तुम से कहा हैअपनी तरफ से इसमें मैंने कुछ भी मिश्रित नहीं किया है। भावार्थ---इस तृतीय संबर द्वार का उपसंहार करते हुए सूत्रकार समझा रहे है कि इन तीय मंबर द्वार का जो मुनिजन तीन करण तीनयोग से सुरक्षित की गई पांच भावनाओं से जीवन भर पालते हैंविषे युं छे भने 'सुदेसिब "व, मनुष्य भने असुथी युद्धत परिपामा तेन। ५३२हीयो छ “ पसत्थं " A प्रामानुं जितना२ पाथी ते भासमय छ, “ तइयं संबरदारसमत्तं " 24t तृतीय सव२६।२ समास थयु, त्तिबेमि” ई. मेटलो है ! म तृतीयस १२वारर्नु કથન જે પ્રમાણે સાકાત ભગ ન મહાવીરના મુખે સાંભળ્યું હતું તે જ પ્રમાણે તમને કહું છું–મારા તરફથી તેમાં કંઈ પણ ઉમેરવા આવ્યું નથી. ભાવાર્થ -- આ બીજા વરદ્વારને ઉપસંહાર કરતા સૂત્રકાર સમજાવે છે. કે આ ત્રીજા સંવરદ્વારનું જે મુનિજન ત્રણ કરણ ત્રણ રોગથી સુરક્ષિત કરવામાં આવેલ પાંચ ભાવનાઓ સહિત પાલન કરે છે તે પ્રમાણે પિતાની દરેક प्र९७ For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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