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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुदर्शिनी टीका अ० २ सू०४ प्रथमभावनास्वपनिरूपणम् संपति सत्यवचनस्य पञ्च भावनाः प्रतिपादयन् पूर्व समितियोगलक्षणां प्रथमां भावनामाह-' तस्स इमा' इत्यादि मूलम्-तस्स इमा पंच भावणाओ बीयस्स वयस्स अलियवयण-बेरमण-परिरक्खणट्टयाए । पढमं सोऊण संवरटुं परमटुं सुट्ठ जाणिऊण न वेगियं, न तुरियं, न चवलं न कडुयं, न फरुसं, न साहसं, न य परस्त पीलाकर सावज्ज सच्चं च मियं च गाहगं च सुद्धं संगयमकाहलं च समीक्खियं संजएण कालम्मिय वत्तव्वं । एवं अणुवीइ. समिइजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा संजयकरचरणनयणवयणो सूरो सच्चज्जवसंपण्णो ॥ सू०४ ॥ टीका- तस्स ' तस्य प्रसिद्धस्य ‘बीयस्स वयस्स' द्वितीयस्य व्रतस्य इमाः वक्ष्यमाणाः पञ्च ' भावणाओ' भावनाः ‘अलियवयणवेरमणपरिरक्षणवचन कहेजाते हैं वे नामादियुक्त वचन कहलाते हैं। इस प्रकार के ये सत्यवचन संयम आदि के बाधक नहीं होते है। ऐसे वचन सव्यव्रती बोल सकता हैं। तथा वह प्राकृत आदि भेद से बारह प्रकार की भाषा और एकवचन आदि के भेद से सोलह प्रकार का वचन भी बोल सकता है। इस प्रकार के वचन बोलने में प्रभु की आज्ञा है। ऐसे वचन बोलने में किसी भी जीव को बाधा नहीं पहुँचती है ।। मू०३ ॥ ___ अब सूत्रकार सत्यवचन की पांच भावनाओं को कहने के अभिप्राय से सर्वप्रथम वे अनुविचिन्त्य समिति नाम की प्रथम भावना નામાદિયુક્ત વચન કહેવાય છે, પ્રકારનાં તે સત્યવચને સંયમ આદિમાં બાધક થતાં નથી. એવાં વચન સત્યવતી બોલી શકે છે. તથા તે પ્રાકૃત આદિ ભેદથી બાર પ્રકારની ભાષા અને એક વચન આદિ ભેદથી સળ પ્રકારના વચન પણ બોલી શકે છે, આ પ્રકારનાં વચન બોલવાની પ્રભુની આજ્ઞા છે, એવાં क्यने यासाथी ४५Y ने साधा पडेयता नथी ।। सू. 3 ॥ હવે સૂત્રકાર સત્યવચનની પાંચ ભાવનાઓ દર્શાવવાને માટે સૌથી પહેલાં તેઓ અનુવનિ સમિતિ નામની પહેલી ભાવનાનું વર્ણન કરે છે For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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