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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदशिनी टीका अ० १ सू०४ भावगस्वरूपनिरूपणम् टीका-' तइयं च ' इत्यादि। ' तइयं च ' तृतीयां च भावनां वचनसमितिरूपामाह-वईए पावियाए' वाचा पापिक्या सावद्यभाषणरूपयेत्यर्थः पापकमाधार्मिकं दारुणं नृशंसं वध. ___ अब सूत्रकार इस अहिंसावत की तीसरी वचन समितिरूप भावना का प्रतिपादन करने के लिये मूत्र कहते हैं-' तइयं च ' इत्यादि । ____टीकार्थ-(तइयं) वचनसमिति रूप तृतीय भावना इस प्रकार से है(पावियाए वईए) सावद्यभाषणरूप वाणी से (पावगं) जीव पाप का बंध करता है। यह पाप (अहम्मियं दारूणं निसंसंवह बंधपरिकिलेसबहुलं जरामरणपरिकिलेससंकिलिलु भवइ) अधर्मरूप है क्यों कि इससे जीवो को दुर्गति की प्राप्ति होती हैं तथा इससे तीबदुःखों को जीव भोगते हैं इसलिये यह दारूण-विषम है । आत्माके हितका इससे घात होता है इसलिये यह नृशंस है। बध, बंधन और इनसे जन्य परिक्लेश-परिताप से यह पाप सदा भरा रहता है । जरा और मरण के भय से जनित संताप से यह सदा व्याप्त रहता है। ऐसा विचार कर जो मुनि (न कयावि वईए पावियाए किंचिवि पावगंभासियवं) इस पाप वाणी को सावद्यभाषणरूप वचन को-किसी भी समय थोड़ा सा भी नहीं बोलते है वे इस वचनसमिति के योग से भावितात्मा बन जाते हैं। ( एवं वय હવે સુત્રકાર આ અહિંસાવતની વચન સમિતિ નામની ત્રીજી ભાવનાનું प्रतिपादन ४२वाने भाटे सूत्र -" तइय' च" त्यादि ___tE-" तइय" क्यनसमिति३५ श्री लावना 24! प्रमाणे छ“ पावियाए वईए” सा भा५५३५ पाणीथी “ पावगं" ७१ पापन! ५५ मांधे छे. ते ५५ “ अहम्मिय दारुणं निसंसं वबंधपरिकिलेसबहुलं जरामरण परिकिलेससंकिलिटुं भवइ ” म ३५ छ तेनाथी याने तिनी प्राति થાય છે. તથા તેનાથી જીવ તીવ્ર દુઃખે ભેગવે છે તેથી તે દારુણ-વિષમ છે. તેનાથી આત્માના હિતને ઘાત થાય છે તેથી તે નૃશંસ છે. વધ, બંધન અને તેના વડે ઉત્પન્ન થયેલ પરિકલેશ-પરિતાપથી તે પાપ સદા ભરેલ રહે છે. જરા અને મરણના ભયથી જનિત સંતાપ વડે તે સદા વ્યાપ્ત રહે છે. એ विया परीने मुनि “ न कयावि वईए पावियाए किंचिवि पावगं भासियव" આ પાપવાણીને સાવધ ભાષણરૂપ વચનને-કોઈ પણ કાળે ડું પણ બેલતા Hथी, ते २ पयनसमितिना योगी सावितात्मा मनी नय छे. “ एवं For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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