SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 658
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शनी टीका भ० १ सू० ५ अहिंसापालककर्तव्यनिरूपणम् रक्षणशासनेन ' भित्तख' भैक्षं 'गवेसियवं' गवेषितव्यम् । तथा-'न वि वंदणाए' नापि वन्दनया-नापि प्रशंसया "दिग्व्यापिनो भवद्गुणाः पूर्वश्रुताः, परमयभवानस्माभिःप्रत्यक्षीकृतः' इत्येवं रूपया, वन्दनशब्दोऽत्र प्रशंसावाचका, 'न वि माणणया' नापि माननया आसनादि प्रदानेन ' न विपूयणाए ' नापि पूजनया-दायकाय किंचिद्वस्तुप्रदानरूपया एतदेव समुदायेनाह-न वि वंदणमाणणपूयणाए ' नापि वन्दनमाननपूजनया 'भित्तखं गवेसियत्वं ' भैक्षगवेषितआदि को पढ़ा दंगा तो मुझे इसके यहां से भिक्षा मिलती रहेगी" ऐसे विचार से जो भिक्षा प्राप्त हो तो वह भिक्षा भी मुनि को नहीं लेनी चाहिये । इसी तरह जिस भिक्षा को प्राप्ति में युगपत् दंभन, रक्षण और शासन इनका प्रयोग करना पड़ता हो उस तरह से भी मुनि को निक्षा की गवेषा नहीं करनी चाहिये । तथा ( न वि वंदणाए, न विमाणणाए, न वि पूयणाए, न वि वंदणमाणणपूपणाए, न वि हीलणाए, न वि निंदणाए, न वि गरिहगाए, नवि होलगा निंदणा गरिहणाए भिक्खं गवेसियवं) जिस भिक्षा की गवेषगा करने में साधु को दाता की “आप की गुणराजि दिगन्ततक फैली हुइ है- आपकी प्रशंसा मैं ने पहिले से ही सुन रखी है परन्तु साक्षात्कार आप का आज ही हुआ है। इस प्रकार से वंदना-प्रशंसा करनी पडे ऐसी भिक्षा साधु को कल्प्य नहीं हैं। यहां वंदन शब्द प्रशंसार्थक है । जिस भिक्षा की प्राप्ति में दाता को आसन आदि का प्रदान पूर्वक सन्मान करके अर्थात् आसनादि प्रदान द्वारा दाता को प्रसन्न करके भिक्षा की प्राप्ति करनी पडे-ऐसी भिक्षा भी साधु को लेनो उचित नहीं है। इसी तरह दाता તેને ત્યાંથી ભિક્ષા મળ્યા કરશે,” એવા વિચારથી જે ભિક્ષા પ્રાપથાય તે ભિક્ષા પણ સાધુને કલ્પનહીં વળી જે ભિક્ષાની પ્રાપ્તિમાં યુગપત, દંભ, રક્ષણ અને શાસનને પ્રગ ४२व ५ से मारनी भिक्षानी प्राति भनिन ४६ नही तथा (न वि वंदणाए, न विमाणणाए, न वि पूयणाए, न वदणमाणणपूणयाणए, न वि हीलणाए न वि निदणाए, न वि गरिहणाए, न वि हिलणा निंदणा गरिहणाए भिक्खं गवेसियवं)२ भिक्षानी प्राति भाटे साधुन हातानी " मापनी गुशिगन्त સુધી વ્યાપેલ છે, મેં આપની પ્રશંસા પહેલેથી જ સાંભળી હતી પણ આપને સાક્ષાત્કાર તે આજે જ થ” એ રીતે વંદણા–પ્રશંસા કરવી પડે એવી ભિક્ષા સાધુને કપે નહીં. અહીં વંદન શબ્દ પ્રશંસાના અર્થમાં વપરાય છે. આસનાદિ આપીને દાતાનું સન્માન કરવું પડે અથવા તે રીતે તેમને પ્રસન્ન કરવા પડે તે પ્રકારની ભિક્ષા પણ સાધુને કપે નહીં. વળી દાતાને પોતાની તરફથી प्र०७७ For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy