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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०४ सू. ११ युगलि कस्वरूपनिरूपणम् जिहां येषां ते तथा 'गरुलायय उज्जुतंगनासा' गरुडायतऋजुतुङ्गनासा गरूडस्येव आयतान्दीघा ऋज्जी-सरला तुङ्गासमुन्नता नासा येषां ते तथा अवदालियपुंडरीय णयणा' अवदालितपुण्डरीकनयनाः विकसितसितकमलतुल्यनेत्राः 'विकोसियधवलपत्तलच्छा' विकोशितधवलपत्रलाक्षाः विकोसिते विकसिते प्रसन्ने सदा प्रमुदितत्त्वात्तेषां, धवले-श्वेते पत्रले-पक्ष्मवती च अक्षीणि नेत्रे येषा ते तथा। ' आणामिय चावरुइलकिण्हब्भराइसंठियसंगयाययसुजायभूमगा' आनामित चापरुचिरकृष्णाभ्रमनिसंस्थितसङ्गतायतसुजातभुवः = आनामितौ = वक्री कृती चापौ = धनुपी तद्वतचरे कृष्णाभ्रराजिसंस्थिते कृष्णमेघरेखासदृशे सङ्गतेसमुचिते आयते-दीर्चे सुजाते स्वभावतःसुन्दराकारे च भ्रुवो येषां ते तथा । 'अल्लीणपमाणजुत्तसवणा' आलीनप्रमाणयुक्तश्रवणाः = आलोनौ स्तब्धौ प्रमाणयुक्तौ समुचितपमाणो श्रवणौ कौँ येषां ते तथा एतावदेव न किन्तु ' सुस्सवणा' सुश्रवणाः = शब्दग्रहणशक्तिसम्पन्नफर्णयुक्ताः, 'पीणमंसलकबोलदेसभागा' पीन शुद्ध तप्त सुवर्ण के समानरक्त तलवाली होती है। तथा ( गरुलायग उज्जतुंगनासा) जिनकी नासिका गरुड़ की नासिका के समान दीर्घ, सरल और समुन्नत होती है। तथा ( अवदालियपुंडरीयणयणा ) जिनके नेत्र विकसित शुभ्र कमल के समान होते हैं। तथा-(विकोसियधवलपत्तलच्छा) जिनकी दोनों आंखे विकसित धवलवर्णोपेत, एवं पक्ष्मवाली होती हैं । (आणाभियचावरुइलाकण्हाभराइ संठियसंगयायसुजायभूनगा) तथा जिनको भोहे वक्रीकृत धनुष्य के समान रुचिर. कृष्णवपंक्ति के जैसी अत्यंतकालो, संगत-लंबी २ एवं स्वभावतःआकार में सुन्दर होती हैं (अल्लीणयमागजुतसवणा) तथा-जिनके दोनों कान स्तब्ध और समुचित प्रमाणवाले होते हैं ( सुस्सवणा) तथा-शब्दग्रहण करने की शक्तिसे संपन्न होने के कारण जिनके दोनों कान सच्चे अर्थ में सुप्रवण " गरुलायगउज्जतुंगनासा" भनी नासि ॥२नी यांय पी eist, सस भने उन्नत जाय छे. तथा “ अवहालियपुडरीयणयणा" भनां नयन विसित श्वेत ४७ पा जाय छ, तथा “ विकोसियधवलपत्तलच्छा " भनी मन मां विसित, श्वेता नी भने ५६भाजी डाय छे. "आणामिय चावरूडल किण्हन्भराइसठियसंगया यय सुजायभूमगा” तथा तेभनी भ्रमरी र धनुष्यना જેવી મનહર, કાળાં વાદળની પંક્તિ સમાન અત્યંત કાળી, અંગત–લાંબી भने स्वभावि रीतेभावाम सु४२ हाय छे. "अल्लीणपमाणजत्तसवणा" तथा मना मने पान स्तण्य मन प्रमाणुस२ना डाय छे. "सुन्सवणा" શબ્દ સાંભળવાની શક્તિવાળા હેવાને કારણે જે ખરા અર્થમાં સુશ્રવણ છે, For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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