SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 470
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदशिनी टीका अ० ४ सू० ६ बलदेववासुदेवस्वरूपनिरूपणम् 'महासत्तसागरा' महासत्त्वसागराः = महावलस्य विशालवलस्य सागरा इव सागराः प्रभूतबलसम्पन्ना इत्यर्थः 'दुद्धरा ' दुर्धराः दुर्धर्षाः-शत्रुभिरनिवार्याः 'धणुधरा' धनुर्धराः शाङ्गीदिधनुर्धारिणः ' नरवसभा ' नरवृषभाः = पुरुषेषु श्रेष्ठाः 'रामकेसवा' रामकेशवा बलदेववासुदेवा ' भायरो' भ्रातरः 'सपरिसा ' सपर्षदः सपरिवाराः ' समुद्दविजयमादियदसाराणं ' समुद्रविजयादिदशा होणा-समुद्रविजय आदिर्येषां ते तथा ते च ते दशास्तेिषां ते च यथा समुद्रविजयो १ ऽक्षोभ्यः२ स्तिमितः३ सागरस्तथा ४ । हिमवान ५ चल चैव६ धरणः ७ पूरणस्तथा ८ ॥ अभिचन्द्रश्च९ नवमो वसुदेवश्च १० वीर्यवान् ।। तथा-'पज्जुष्णपयिवसंबअनिरुद्धनिसढउम्मुयसारणगयसुमुहदुम्मुहादीण' हैं-चढाने वाले होते हैं, (महासत्तसागरा) विशालबल के ये सागर होते हैं अर्थात् बहूत अधिकवल के ये अधिपति होते हैं, (दुद्धरा) शत्रुओं द्वारा ये अनिवार्य होते हैं (धणुधरा) शार्ङ्ग आदि धनुषों के ये धारणकरने वाले होते हैं, (नरवसभा) पुरुषों में श्रेष्ठ होते हैं (रामकेसवा) बलदेव की अपर संज्ञा राम और वासुदेव की केशव होती है । (भायरो) ये संबंध में भाई भाई होते हैं । (सपरिसा) परिवारसहित होते हैं। (समुद्दविजय मादियदसाराणं पज्जुण्ण पइव संब अनिरुद्धा निसढ उम्मय सारणगय सुमुहदुम्मुहादीणं जायवणं अधुट्ठाण वि कुमारकोडीणं हिययदइया ) तथा समुद्रविजय १, अक्षोभ्य २, स्तिमित ३, सागर ४, हिमवान् ५, चल ६, धरण ७, पूरण ८, अभिचंद्र ९ और वसुदेव इन समुद्रविजय आदि १० दशाों के लिये तथा प्रद्युम्न प्रतिवसांव, अनिरुद्ध, ( यवना।) डाय छ, “महासत्तसागरा" विशाम सागर हाय छ, એટલે કે ઘણા જ બળવાળા હોય છે, અથવા મેટા સિન્યના અધિપતિ હેય छ. “दुद्धरा" शत्रुमा द्वारा अपराजित हाय छ, “धणुधरा" शङ्गमाहि धनुष्याने पा२४५ ४२॥२॥ य छ, “ नरवसभा " ५३षामा श्रे०४ डाय छे. " रामकेसवा" जवनु भानु नाम राम भने वासुहेवर्नु भानु नाम शव डाय छे. “भायरो" तेथेमामानुं सग५] धरावे छ, भने “ सपरिसा " परिवार पाडाय छ. समुद्दविजयमादिय दसाराणं पज्जुण्ण पइव संबअनिरुद्धा निसढ नम्मुयसारणगयसुमुदुम्मुहादीणं जायवाणं अध्धुद्वाण वि कुमारकोडीणं हिययदइया " तथा (१) समुद्र विन्य, () माल्य, (3) स्तिमित (४) सा॥२ (५) भिवान, (६) यस, (७. ५२९५ (८) ५२९५ () अभिय'. मने (१०) वसुदेव, ते समुद्र विन्य मा १० शानि, तथा प्रधुम्न, For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy