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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे त्रिजगत्पसिद्धाः, 'समत्तभरहाहि वा' समस्तभरताधिपाः दक्षिणोत्तरभरताधिपतयः । नारदा' नरेन्द्राः, धीराः-संग्रामादिष्वातिहतशक्तिसम्पन्नाः ससेलवणकाणणं' सशैलवनकानन शैलैः पर्वतैःवनैः नगरदूरस्थैः, काननैः नगरसमीपस्थैः सह-सहितं यत्तत्तथाविधं 'हिमवंतसागरंतं ' हिमवत्सागरान्तं हिमवान् क्षुल्लहिमवत्पर्वतः सागरश्व-समुद्रः तदन्तं तावत्पर्यन्तं 'भरहवास' भारतवर्ष 'भोत्तूण' भुक्त्वा उपभुज्य 'जियसत्तू' जितशत्रवः पराजितसमस्तशत्रवः, पवररायसीहा' पवरराजसिंहाः पवरेपु-महापराक्रमेष्वपि राजसु मध्ये सिंहाः=सिंहसदृशाः, प्रवराश्वते राजसिंहा इति वा विग्रहः= 'पुव्वकडत त्रप्षभावा ' पूर्वकृततपःप्रभावात्= पूर्वजन्मकृततपो माहात्म्यात् ' निचिट्ठसंचियमुहा ' निर्विष्ट सश्चितसुखाःउपभुक्तसश्चितसुखराशयः । अणेगवाससयमाउन्वंतो' अनेकवर्षशतायुष्मन्तः, में हो जाती है, और वे (समत्तभरहाहि वा ) समस्त भरतखंड के अधिपति होते हैं, अर्थात्-५ म्लेच्छखंड और १ आर्यखंड इस प्रकार संपूर्णभरतक्षेत्र के स्वामी होते हैं, (नरिंदा) तथा वे मनुष्यों के इन्द्र माने जाते हैं ( धीरा ) तथा वे संग्राम आदि में अप्रतिहत शक्ति से संपन्न होते हैं (ससेलवणकाणणं च हिमवंतसागरंतं भोत्तूण भरहवास जियसत्तू पवररायसीहा ) तथा वे पर्वतों, वनों-नगर से दूर रहे हुए जंगलों, एवं काननों-नगर समीपस्थ जंगलों से युक्त तथा क्षुल्लकहिमवान् पर्वत और समुद्रपर्यंत प्रसूत ऐसे भारतवर्ष का उपभोग करके समस्त शत्रुओं को पराजित करने के कारण महापराक्रम शाली राजाओं के बीच में केशरी के समान चमकते हैं, और ( पुवकडतवप्प भावा निविट्ट संचियसुहा) पूर्वजन्म में आचरित तप के प्रभाव से वे सोभा प्रसिद्ध खाय छे, मने ते " समत्तभरहाहिवा" समस्त मरतमा અધિપતિ હોય છે, એટલે કે પાંચ મ્યુચ્છ ખંડ અને એક આર્યખંડ એ રીતે संपूर्ण मरतक्षेत्रमा मधिपति डाय छे. “ नरिंदा" तथा तेमने मनुष्योना छन्द्र गवामा न्यावे छे, “धीरा " ते सयाम माहिमा 401 शति यशवनार हाय छ, “ससेलवणकाणणं च हिमवंतसागरत भोत्तणभरहवासंजियसत्तू पवररायसीहा " तथा तेसो पता, -नाथी २ माainal, કાન-નગરની પાસેનાં જંગલોથી યુક્ત તથા હિમાલય પર્વતથી સમુદ્ર સુધી વિસ્તૃત એવા ભારત વર્ષને ઉપભેગા કરીને સઘળા શત્રુઓને માહિત કરવાને કારણે મહાપરાક્રમી રાજાઓની વચ્ચે કેશરી “” સમાન ચમકે છે, અને "पुब्बकडतवपभावा निविट्ट संचियसुहा" twi रेस तपना मा. For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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