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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ0 ४ सू० ५ चक्रवर्तीलक्षणनिरूपणम् येषां ते तथा हिमवत्समुद्रपर्यन्तपृथिवीशासकाः 'चाउराहिं सेणाहिं समणुजाइज्जमाणमग्गा' चतसृभिः सेनाभिः समनुयायमानमार्गाः-हस्त्यश्वस्थपदात्तिरूपचतुरङ्गसेनाभिः समनुयायमानः अनुगम्यमांनो मार्गो येषां ते तथा तदेव दर्शयति 'तुरंगवई-गयवई-रहबई-नरवई' तत्र 'तुरंगवई ' तुरङ्गपतयः ‘गयबई ' गजपतयः 'रहवई' रथपतयः ' नरवई' नरपतया पदाति सेनापतयः 'विउलकला' विपुलकुलाः = उच्चकुलाः, विश्रुतयशसः विख्यातकीर्तय · सारयससिसकलसोम्मवयणा' शारदशशिसकलसौम्यवदनाः शारदाः शरत्कालिको शशी-चन्द्रः कीदृशः सकला सम्पूर्णकलायुक्तः शरत्यूर्णिमाचन्द्र इत्यर्थः, तद्वत् सौम्यं-सुन्दरं, वदनं मुखं येषां ते तथा । ' मरा' शूराम्-शत्रुमर्दकाः ‘तिलोकनिग्गयपभावा' त्रैलोक्यनिर्गतप्रभावाः त्रिलोकव्यापिप्रभावसम्पन्नाः, 'लद्धसद्दा' लब्धशब्दाः= पर्यत तक की भूमि के शासक होते हैं, ( चाउराहिं सेणाहिं समणुजाहउन्नमाणमग्गा ) हस्ती, अश्व, रथ एवं पैदल सैन्य, इन चार अंगों वाली सेना से जो सदो अनुगम्यमान मार्गवाले होते हैं, अर्थात् वे (तुरंगवईगयवई रहबई :नरवई) अश्वपति, गजपति, रथपति, और नरपति होते हैं। (विरलकुला) तथा उनका कूल बहुत ऊँचा होता हैं, (वीसुयजसा) कीर्ति भी उनकी चारों दिशाओं में व्याप्त होती है, तथा ( सारयससि. सकलसोम्मवयणा ) उनकी मुख शरत्काल की पूर्णिमा के चन्द्रमा जैसा सौम्य होता है तथा वे ( सूरा ) अपने शत्रुओं के मर्दक होने से शूरवीर होते हैं, तथा (तिलोकनिग्गयपभावा ) उनका प्रभाव तीनलोक में व्याप्त रहता है, इसलिये वे (लद्धसदा ) उनकी प्रसिद्धि तीनों लोकों तमा सय ५३'त सुधाना प्रदेश ५२ शासन यावे छे. “चाउराहि-सेणाहिं समणुजाइज्जमाणमग्गा" तथा ते पति राजयो mमह, રથદળ, અને પાયદળ, એ ચતુરંગી સેના સહિત માર્ગ પર કુચ કરનારા હેય छ, असे “ तुरंगबई गयवई रहवई नरवई" ती मपति, पति, २०५ति मने नरपति डाय छे. “विउलकुला” तथा तेसो यांना होय छे. “ बिसुय जसा ' तेमनी गति या हिशामा येही हाय छे. तथा “सार यससिसकलसोम्मवयणा” तेमन भुम २२६ ऋतुनी धुभिान! यन्द्र समान सौम्य राय थे, तथा तेसो “सूरा" पोताना शत्रुमार्नु भईन ४२ना२ पाथी शूरवीर डाय छ, “तिलोक्कनिग्गयपभावा" तमनो प्रलाप रे डोमा व्यापत सय छे. तेथी " लद्धसद्धा" तेमात्री For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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