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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५६ प्रश्नब्याकरणसूत्रे अङ्गारमदीप्तककल्पाऽत्यर्थशोतवेदनाऽऽसदनोदोर्णसततदुःवशतसमभिभूते, तत्र ' अङ्गारपलित्तगप्प । प्रदीप्तकः = अतिमज्वलितो योऽङ्गारः = धूम रहितवह्निस्तेन कल्पं तत्सदृशम्-उष्णं, तथा 'अच्चत्यसीयवेयणा आसायणो' अत्यर्थ शीतं अत्यर्थ हिमकालोद्भवशीतं तयोर्वेदना तस्याः आसादनं-पापणं तेन ' उदिण्णसययपुक्खसय ' उदीर्णानि समुद्भतानि यानि सतत दुःख शतानि अनेकशतसंख्यकनिरन्तरदुःखानि, तैः । समभिभूए ' समभिभूतः= युक्तः यः स तथा तस्मिन् , यद्वा-उष्णशीतवेदना, सा कीदृशी ? इत्याह आशा तनेन-चिरकालानुवन्धिकटुक फलदायकाऽदत्ताऽऽदानजनिताऽशातवेदनीयकर्मणा उदीर्णा प्रकटिभूता तस्याः तज्जनितानि यानि सततदुःखशतानि तैः समभिभूतः व्याप्तो यः स तथा तस्मिन्नेवं भूते नरके अदत्ताऽऽदायिनो मृताः सन्तो गच्छ. न्तीति पूर्वेण सम्बन्ध ः। तत्र नरके गत्वा सन्तप्तलोहवालुका निकरप्रखरकठोरसूचीके जैसी उष्णता, और ( अच्चत्थसीय ) हिमकाल जैसा अत्यंत शीत है। यहां नारकियों को इस उष्णता और शीत की (वेयणा आसायणो. दिण्ण ) वेदना की प्राप्ति से उदीर्ण-उत्पन्न ( सययदुक्खसय ) निरन्तर सैकड़ों दुःख प्रास होकर (समभिभूए) दुःखित करते हैं। " आसा. दन " यह पद जो सूत्र में आया है उसका अर्थ एक तो प्राप्त होना हैजैसा कि अभी लिख दिया गया है। तथा दूसरा अर्थ इसका इस प्रकार से है-कि वे अदत्ताग्राही चोर जो वहां मर कर नारकी की पर्याय से उत्पन्न हो चुके हैं चिरकालानुबंधी-भव भव में कटुक फल दायक अदत्तादान के प्रभाव से उत्पन्न हुए अशात वेदनीय कर्म के द्वारा प्रकटी भूत वेदना से व्याप्त उन नरकों में निरन्तर सैकड़ों प्रकार के दुःखों को गकप्प" भति प्रतित म॥२॥ २ Y भने “ अच्चन्थसीय " भि २ मत्यत त छ. त्यांना२४ी ७वाने त ता भने शातनी " वेयणा आसायणो दिण्ण" येनानी प्राप्तिथी उत्पन्न थये “ सययदुक्खसय " से। । नि२त२ “ समभिभूए" भी ४२ छ. “आसादन " A 4. सूत्रमा ઉપયોગ થયે છે. તેને એક અર્થ તે “પ્રાપ્ત થવું” છે, જે સૂત્રમાં હમણાં જ અપાય છે. તથા તેને બીજો અર્થ આ પ્રમાણે છે–તે અદત્તગ્રાહી ચાર કે જે મરીને નારીની પર્યાયમાં ઉત્પન્ન થઈ ચુક્યો છે, ચિરકાલાનુબંધીભવભવમાં કડવા ફળ દેનાર અદત્તાદાનના પ્રભાવે ઉત્પન્ન થયેલ અશાતા વેદનીય કર્મ દ્વારા ઉત્પન્ન થયેલ વેદનાથી વ્યાપ્ત તે નરકમાં નિરંતર સેકડે દુખ ભોગવ્યા કરે છે. For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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