SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 403
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे जाय कुहियदेहा ' कृमिजातकुथितदेहाः कृमिजातेन = रोगादि कारणात समूत्पन्नकृमिसमूहेन कुथितदेहाः दुर्गन्धयुक्तशरोराः 'अणिधयणेहि' अनिष्टवचनैः अप्रियवचनैः ‘सुटुकयं जं मोत्ति पा ' सुष्टुकृतं = शोभनं जातं यत् यस्मात् मृतोऽयं पापः = पापी इत्येवं रूपः 'सप्पमाणा' शप्यमानाःआक्रोश्यमानाः 'तुट्टेण जणेण हण्यमाणा ' तुष्टेन जनेन हन्यमानाः तेषां मारणेन प्रसन्नो यो जनस्तेन ताडयमानाः सन्तः ‘सयणस्स विय ' स्वजनस्यापि च किं पुनरन्पेषाम् 'दीहकालं ' दीर्घकालं यावत् 'लज्जावणगाय' लज्जापनकाः= लज्जालज्जारहिता इत्यर्थ ' हुंति' भवन्ति ॥ मू० १७ ॥ एवमिह लोके दुःखमाप्नुवन्तीत्युक्त, अथ परलोके किं भवती ? त्याह'मयासंता' इत्यादि मूलम्-मयासंता पुणो परलोगसमावण्णा नरए गच्छंति निरभिरामे अंगारपलित्तगकप्पअच्चत्थसीयवेयणा असायणो दिये जाते हैं । तथा ( केइ ) कितनेक अदत्तग्राही चोर जो मरने से बाकी बचे रहते हैं वे (किमिजायकुहियदेहा ) रोगादिक कारण के वश से अपने शरीर में उत्पन्न हुए कीड़ों से दुर्गधित शरीर वाले होकर (अणिदुवयणेहिं) लोगों के इस प्रकार के अप्रियवचनों से कि-(सुटुकयं जं मओत्ति पावो) भला हुआ जो यह पापी मर रहा है " अथवा मरे हुए सा हो रहा है " इस प्रकार ( सप्पमाणा ) गालियों से अपमानित होते हैं। तथा उनकी मृत्यु से प्रसन्न होने वाले मनुष्यों से ताडित होकर (सयणस्स वि य ) स्वजनोंसे भी और दूसरोंसे भी (दीहकालं ) बहुत समयतक (लज्जावगाय ) लज्जित (हुंति ) होते हैं । सू-१७॥ भवाय छ भने तना टु टु४४१ ४२१य छे. त॥ - केइ " 2.४ मत-- पाही यो। ने भातमाथी म छे तो " किमिजायकुहियदेहा" शाहि કારણથી તેમનાં શરીરમાં ઉત્પન્ન થયેલ કીડાઓથી દુર્ગંધ યુક્ત શરીરવાળા ". " अणिद्रवयरोहिं" योजना मा २i म.प्रय क्यनाथी " सपनाणा" ५५मानित थाय छ-" सुटुक यं जं मओत्ति पावो" " सा थ\ २ पापी मारीत भरी रह्यो छ” अथ! " भरेशान 21 स्थिति अनुभव ., तथा तमना भृत्युथी भु१. थन!! भास! !! भा२ पान “सयणसविय" स्वपन तथा मी साथी " दीहकालं" ai! समय सुधी 'लज्जावगाय" acron हुति" पामे छ । सू-१७॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy