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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे स्वात् , (४) 'मायामोसो' मायामृपा-मायापूर्वकस्वादसत्यभाषणस्य मायामृषेति नाम, (५) ' असंतकं ' असत्कं-अविद्यमान-सत् यस्मिंस्तदसत्कम् असत्यम् , (६) 'कूडकवडमवत्थुगं' कूटकपटावस्तुकं-तत्र कूट-परवश्वनाथै न्यूनाधिकभाषणं कपट भाषाविपर्ययकरणम् अवस्तु-अविद्यमानवस्तु कथनम् यथा-'जगतः कर्ता इश्वरः' इत्यादि कथनम् कूटादीनां त्रयाणां समानार्थकत्वादेकतमत्वे नैव गणनादिदमेकं नाम, (७) निरत्थयमवत्थयं च ' निरर्थकमपार्थकं च = निर्गतोऽर्थोयस्मिस्तत् = सत्यार्थ हीनम् , अपार्थम् अपगतार्थमसम्बद्धार्थमित्यर्थः, (८) 'विदेसगरहणिज्ज' बनाने के लिये प्रयोग से लाया जाता है इसलिये इसका दूसरा नाम शठ है २ । अनार्यजनों द्वारा यह बोला जाता है इसलिये इसका नाम अनार्य है ३ । यह असत्यभाषण माया पूर्वक होता है इसलिये इसका नाम मायामृषा है ४ । असत्यभाषण में जो विषय कहा जाता है वह उसरूप में नहीं होता है इसलिये इसका नाम असत्य है ५। परवंचन के लिये इसमें न्यूनाधिक बोलना पड़ता है, तथा इसमें बोलने की भाषा की शैली भी भिन्न प्रकार की होती है, और जो वस्तु इसमें कही जाती है वह अविद्यमान होती है, जैसे यों कहना कि जगत का कर्ता ईश्वर है सो यह कूटकपटावस्तुक नाम का असत्य है । यहां कूट कपट अवस्तुक, इन तीनों की समानार्थकता होने के कारण एक पद रूप से गिनती करली गई है ६। यह भाषण सत्यार्थ से हीन होता है इसलिये इसका नाम निरर्थक है । इसमें वाच्य अर्थ, संबंध विहीन रहता है इसકપટી લેકે દ્વારા પિતનું કાર્ય સાધવા માટે તેને પ્રયોગ કરાય છે, તેથી તેનું मी नाम "शठ" छ, (3) सनान २ ते मोसाय रे तेथी तेर्नु alag नाम “अनार्य" छे (४) ते असत्य भाषा भाया पूर्व थाय छ तेथी तेनुं याथु नाम “ मायामृषा" छे. (५) असत्य भाषमा 2 विषयनु ४थन ४राय छे ते यथार्थ-साया २१३५-४२रातु नथी तेथी तेनु पांय नाम 'असत्य" છે (૬) અન્યની વચનાને માટે તેમાં ન્યૂનાધિક બોલવું પડે છે, અને તે બેલ વાની શિલી પણ જુદા જ પ્રકારની હોય છે, અને જે વસ્તુ તેમાં કહેવાય છે તે અવિદ્યમાન હોય છે, જેમ કે “જગતને કર્તા ઇશ્વર છે ” તે પ્રમાણે કહેવું ते २0 ४॥२॥ २ ॥२॥ असत्यने 'कूटकपटावस्तुक असत्य" ४ छ. અહીં કૂટ, કપટ અને અવસ્તક એ ત્રણે પદેથી સમાનાર્થકતા હોવાથી એક જ પદ રૂપે ગણવામાં આવેલ છે. (૭) તે ભાષણ સત્યાર્થ રહિત હોય છે તેથી તેનું નામ નિરર્થક છે તેમાં વાચ્ય અર્થ, સંબંધ રહિત હોય છે તેથી તેનું For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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