SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૨૦૮ प्रश्नव्याकरणसूत्रे 'जमकाइय तासिया' यमकायिक त्रासिताः-यमकायिकैः पञ्चदशविधैः परमाधार्मिक अम्बाम्बरीषादिभिर्वासिताः बासं प्रापिताः 'भीया' भीताः भयव्याकुलाः सन्तः 'सई' शब्दं वक्ष्यमाणप्रकारमार्तनादं करेंति' कुर्वन्ति । 'किं ते ' के ते आर्तशब्दाः ? इत्याह-'अविभाये 'त्यादि 'अवि' अपिवाक्यालङ्कारे 'भाय' भाग-हे महाभाग-सामर्थ्यवत्त्वात् , 'सामि' हे स्वामिन् ! अधिपतित्वात् , 'भाय ' हे भ्रातः ! - सहायकत्वात् , 'बप्प' हे पितः! - पालकत्वात् , 'ताय' हे तात ! - बायकत्वात् , 'जितवं' हे जितवन् । =हे विजयिन् ! – विजयशालिवात् , 'मुय मे' मुश्च मां 'मरामि' म्रिये, अहं ' दुबलो' दुर्बलाबलहीनः 'वाहि पीलिओ' व्याधि पीड़ितः, 'कि' किमर्थं त्वम् ' इदाणि' इदानीम् अस्मिन्-समये 'दारुणो' कटोरः, 'णिदओ' समुद्रों में भी पाये जाने वाले तिर्यच-उत्तमपुरुष-तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, आदि, एवं चरमशरीरी-उसी भव से मोक्ष जाने वाले जीव, ये सब निरूपक्रम आयुवाले होते हैं ॥१॥ पापी जीव वहां (जमकाइयतासिया) यमकायिक-पन्द्रह प्रकार के परमाधार्मिक अम्ब और अम्बरीष आदि देवों के द्वारा त्रास को प्राप्त कराये जाते हैं । (भीया) इसलिये भय से सदा व्याकुल बने हुए वे वहां पर (सई) आर्तनाद (करेंति) किया करते हैं (किं ते ?) वे कौन २ शब्द करते हैं ? वही कहते हैं-(अविभाय) हेमहाभाग ! (सामि) हे स्वामिन् ! (भाय) हे भाई ! (वप्प) हे पिता ! (ताय) हे तात ! (जितवं) हे विजयन् ! (मुय मे) तू मुझे छोड़ दे, (मरामि) में भर रहा हूं, (दुबलो) मैं बलहीन हूं, (वाहिपीलिओहं) व्याधि से पीडित हो रहा हूं, (किं इयाणि) क्यों इस समय तुम मेरे उपर (एवं) इस प्रकार से (दारुणो निदओ य असि) तिय"य, उत्तम ५३५-ती॥ ४२, यती , मजदेव, पासुदृ५ मा, मने २२भશરીરી-એજ ભવમાં મેક્ષે જનારા છે, એ સઘળા નિરુપકમ આયુષ્યવાળા डाय छ ॥१॥ यो पापी । " जमकाइय तासिय” यमयि४-५४२ ४२॥ • ५२भाधामि ४ २५ भने २१५ माहियो वा त्रास पामे छ, "भीया" तथी मयथी व्या मानसा तो त्या “ सदं” भात ना " करें ति" रे छ. " किंते ? " तेया ॥ ५॥ Audो माले छ ? ते ४ाम मावे छे. " अविभाय " मडामा ! " सामि" स्वामिन् ! "भाय" मा ! "वप्प" पिता! 'हे ताय"तात ! "जितव"विनयी ! "मुय में" तु भने छोड़ी है, “मरामि" ई भरी २यो छु, “ दुबलो" नि छु', “वाहिपीलिओहं " व्याधियी पी13 २हो छु, " किं इयाणि" सत्यारे तमे भा२। प्रत्ये "एवं" मा रीते " दारुणो निहओ य असि” १२ भने निय For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy