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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका भ० १ सू० २३ के के जीवा पापं कुर्वन्ति ? निर्वर्तितवन्तस्ते करणपर्याप्ताः । तदितरे-अपर्याप्ताः। 'असुभलेस्सपरिणामे' अशुभलेश्य परिणामाः=अशुभलेश्याः संक्लिष्टलेश्यायुक्ताः परिणामा: अध्यवसाया येषां ते, एते पूर्वोक्ताः 'अण्णे य ' अन्ये च अन्येऽपि 'एवमाई । एवमादयःएतादृशाः पाणिनः, 'पाणाइवायकरणं' प्राणातिपातकरणं प्राणातिपातानुष्ठानं 'करेंति ' कुर्वन्ति, पुनरपि तदेवाह-'पावा' इत्यादि-पावा' पापाः पापकर्मतस्पराः, 'पावाभिगमा' पापाभिगमा: पापमेव अभिगमः स्वीकारो येषां ते तथा 'पावमई ' पापमतयः पापबुद्धयः, 'पावरई ' पापरुचयः पापे एव रुचिरनुरागो येषां ते तथा, ‘पाणवहकयरई' प्राणवधकृतरतयः पाणवधे कृता-रतिःप्रीतियेस्ते तथा, 'पाणवहरूवाणुट्ठाणा' प्राणवधरूपानुष्ठाना-माणवधरूपमनुष्ठान इसके पहिले नहींवे लब्धिपर्याप्त जीव हैं ! तथा जो जीव शरीर इन्द्रिय आदि करणों की रचना को पूर्ण कर चुकते हैं ये करणपर्याप्त है। इनसे भिन्न जो जीव हैं वे अपर्याप्त हैं तथा (असुभलेस्सपरिणामे ) जिन जीवों के अध्यवसाय-परिणाम-संक्लिष्ट लेश्यायुक्त हैं (एए' ये तथा ( अण्णे य एवमाई ) इनसे भिन्न और भी ऐसे ही प्राणी (कातिपाणाइवाय करणं) प्राणातिपातरूप पाप के करने वाले होते हैं। इसी बात को सूत्रकार "पावा" इत्यादि पदों द्वारा प्रकट करते हैं (पावा) जो पापकर्म करने में तत्पर हैं, (पावाभिगमा) पाप प्रवृत्ति ही जिन्हें स्वीकृत है, ( पावमई ) जिनकी बुद्धि पापमय हो रही है, (पावरुई) पापकर्म में जिनकी रुचि अधिक से अधिक रूप में सजग रहती है, ( पाणावहकयाई) प्राणवध में जिन्हें आनंद आता है (पाणावहरूवाणुમરે છે તે પહેલાં મરતાં નથી, તેમને લબ્ધિ પર્યાપ્ત છ કહે છે. તથા જે જે શરીર ઈનિદ્રય આદિ કરણની રચના પૂર્ણ કરી નાખે છે, તે જીવને કરણ પર્યાપ્ત કહે છે. તેમનાથી જે ભિન્ન પ્રકારના છપ છે તેઓ અપર્યાપ્ત છે. तथा "असुभलेसपरिणामे ” ? सवाना मध्यवसाय-परिणाम-सडिट अश्या युत डाय छ “ए ए " तेमो तथा " अण्णेय एवमाई " ते सिपायनi मीन पर अव १ प्राशीमो “करेंति पाणाइ वायकरणं" प्रतिपात ३५ पा५ ४२नासं हाय छ. मेरी वातने सूत्रधार " पावा" त्याहि हो द्वारा प्रगट ४३ छ. “ पावा" ५५४ ४२वाने तत्५२ डाय छ, “पावाभिगमा " पा५ प्रवृत्ति भणे स्वीसी छे,“ पावमई " भनी मुद्धि पापमय था गई छे, " पावरुई ” ५४म भो भनी वृत्ति धारेमा थारे गत २७ छ, ' पाणवह कयरई " प्रावधमा भने मन भावे छे, “पाणवहरूवाणु For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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