SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org . नव्याकरणसूत्रे , 4 प्रादयः, उरगाः = सर्पाः खचराः - पक्षिणः श्येनादयः संदेशतुण्ड: संदेशमिवतुण्डो येषां ते संदशतुण्डा:= ढङ्ककङ्कादि पक्षिणः, एषां द्वन्द्वस्ततः ते च ते 'जीबोपघातेन = जीवहिंसया जीवन्ति इति, जीवोपघातजीविनश्वेति तथोक्ताः । सणीय ' संज्ञिनव 'असणिणो ' असंज्ञिनः ' पज्जत अपज्जत्ते य ' पर्य्याप्ता अपर्याप्ताव = सर्वे जीवा-पर्याप्ता अपर्याप्ताश्चेति द्विविधा भवन्ति तत्र पर्याप्तयो विद्यन्ते येषां ते पर्याप्ताः पर्याप्तनामकर्मोदयात् पर्याप्तियुक्ता जीवाः, ते द्विविधाः लब्धिपर्याप्ताः, करणपर्याप्ताश्च । ये सर्वा अपि पर्याप्ती: पूरयित्वा म्रियन्ते न ततः प्राक् ते लब्धिपर्याप्ताः ये पुनः शरीरेन्द्रियादोनि करणानि Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याघ्र आदि जीव ( ओरग) उरग - छाती के सहारे चलने वाले सांप, (खहर) श्येन आदि पक्षी खेचर जीव (संदसतोंड ) संदेश- संडासी के जैसे मुखवाले ढंक कंक आदि पक्षी (जीबोवधायजीवी ) ये सब जीवों की हिंसा करके अपना जीवन निर्वाह करने वाले हैं । तथा ( सण्णीय) जिनके मन है ऐसे संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव और (असण्णिणो ) जिनके मन नहीं है ऐसे असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव, ये सब पाप करके प्रसन्न होते हैं । जलचर से लेकर असंज्ञी पर्यन्त के जितने भी जीद हैं सब (पज्जते अपज्जन्ते य) पर्याप्त और अपर्याप्त होते हैं । पर्याप्त नामकर्म के उदय से जिनकी अपनी२ योग्य पर्याप्तियां पूर्ण हो जाती हैं वे पर्याप्त जीव हैं, और जिनकी पर्याप्तियां पूर्ण नहीं होती हैं वे अपर्याप्त जीव हैं। ये पर्याप्त जीव लब्धिपर्याप्त और करणपर्याप्त के भेद से दो प्राकार के होते हैं । जो समस्त पर्याप्तियों को पूरण करके ही मरते हैं। वो, " ओरग " २ग-पेटे शासनाश साथ, खयर માજ આદિ નભथ२ पक्षी, “ संदसतोंड ” सदृश-साणुसीना भेवां भुवाणां 63, 33 माहि પક્ષીએ " जीवोवधाय जीवी ” मे मधा भवानी हिंसा उरीने पोतानो न निर्वाडु उरनार व छे तथा " सण्णीय " भने भन छे सेवा सज्ञी पथे. न्द्रिय लव, भने “ असणिण्णो ” भने भन नयी सेवा असंज्ञी पथेन्द्रिय જીવ, એ બધા પાપ કરીને પ્રસન્ન થાય છે. જળચરથી લઈ ને અસ’જ્ઞી સુધીના આ જેટલા જીવ છે તે બધા " पज्जन्ते अपज्जते य" पर्याप्त भने पर्याप्त હાય છે. પર્યાપ્ત નામક ના ઉદયથી જેમની પાત પેાતાની યાગ્ય પર્યાસિ પૂર્ણ થઈ જાય છે તેમને પર્યાપ્ત જીવા કહે છે. અને જેમની પર્યામિંયા પૂછ્યું " થતી નથી તે જીવાને અપર્યાપ્ત જીવે. કહે છે. પર્યાપ્ત જીવાના બે ભેદ છે. (૧) લબ્ધિ પ્રર્યાપ્ત (૨) કરણુપર્યાપ્ત જે જીવા સમસ્ત પર્યાસિયા પૂરી કરીને 4. For Private And Personal Use Only "
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy