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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विकरण ४३ प्राकृत में केवल निर्देशक, विध्यर्थक, अनुज्ञाज्ञापक और क्रियातिपत्ति का प्रयोग होता है । इसलिए प्राकृत में केवल चार प्रकार धातु सा होता है। ६. काल-प्राकृत में तीन काल हैं :- भूत, वर्तमान और भविष्यत् । संस्कृत में जो लङ् लङ् और लिट् है उसका प्रयोग प्राकृत में नहीं होता है। प्राकृत में इन तीनों का प्रयोग केवल एक रूप से प्रकट होता है । इसलिए संस्कृत के ज्ञान से प्राकृत में क्रिया का रूप नहीं कर सकते हैं। कभी-कभी अर्धमागधी में लङ् और लङ् का प्रयोग देखा जाता है । जैसे देविंदो इणं अब्बवी। ७. अ-आगम- संस्कृत में अ-आगम लङ, लङ और लुङ् में होता है। यह अ-कार अतीत-काल का ज्ञापक है । लङ् और लङ् प्राकृत में नहीं होता है इसलिए प्राकृत में अ-आगम भी नहीं होता है । क्रियातिपति अर्थात् लुङ प्राकृत में होता है । लेकिन इसका प्रयोग अ के योग में नहीं होता है । इसलिए प्राकृत में अ-आगम का प्रयोग नहीं होता है। ८. अभ्यास (द्वित्व) - प्राकृत में अभ्यास का प्रयोग नहीं होता है । इसलिए प्राकृत में अभ्यास नहीं होता है । संस्कृत में अभ्यास केवल जहोत्यादिगण में, लिट् के रूप में, सन्नन्त के रूप में और यडन्त के रूप में मिलता है । प्राकृत में ये सभी विषय दूसरे ढंग से घटित होते हैं । इसलिए प्राकृत में भी अभ्यास नहीं होता है। __ अभ्यास का अर्थ धात को द्वित्व बनाना । जैसे गम् धात को लिटलकार के प्रयोग में धातु का अभ्यास होता है । अर्थात् गम् गम् होता है । इससे जगाम बनता है । यह जो गम् धातु का द्वित्व है वही अभ्यास कहलाता है । प्राकृत में इसका प्रयोग नहीं है । इसलिए प्राकृत में अभ्यास नहीं है । ९. विकरण - प्राकृत में दो विकरण है-अ और ए [ए च] वर्तमानापञ्चमी शतृष वा (हे. ३.१५८) । सभी रूप अकारान्त और एकारान्त से ही होते हैं । जैसे करइ, करेइ, हसइ, हसेइ, गमइ, गमेइ इत्यादि । संस्कृत में जो १० गण है उन सभी का प्राकृत में दो गणों में विभाजन होता है। किन्त जब संस्कृत से हम लोग प्राकृत में सीधा रूपान्तरण करते हैं तब संस्कृत के गण का रूप प्राकृत में मिल सकता है । जैसे श्रृणोति प्राकृत में सुणोइ हो सकता है और सुणइ तो होगा हो । प्रायः इस तरह की धात के गण का रूप प्राकृत में मिलता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020568
Book TitlePrakrit Vyakaran Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaranjan Banerjee
PublisherJain Bhavan
Publication Year1999
Total Pages57
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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