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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१०) सिवा इसके कि यदि " जावे, तो वह पालीके হা " के स्थानापन्न अक्षरको उल्टा करके देखा श " से कुछ कुछ मिलता है. " इससे स्पष्ठ है, कि जैसे अंग्रेज़ी और गांधार अक्षर फ़िनीशियन से मिलते जुलते हैं, वैसे पाली फ़िनीशियन आदिसे नहीं मिलते. पाली और गांधार लिपियोंका परस्पर बिल्कुल न मिलना भी साबित करता है, कि ये दोनों लिपि एकही मूल लिपिकी शाखा नहीं हैं, अर्थात् गांधार लिपि सेमिटिक वर्गकी है, और पाली सेमिटिकसे भिन्न है. फिनीशियन से निकली हुई समस्त लिपियोंमें स्वरके चिन्ह अलग नहीं है, किन्तु अक्षर ही उनका काम देते हैं, और पालीमें व्यंजनके साथ स्वरका चिन्ह मात्रही रहता है. ग्रीक, अंग्रेज़ी, हिम्यारिटिक, मेंडिअन, एथिआपिक, अरबी, कूफी, पहलवी, आदि, जितनी लिपियें फ़िनीशियनसे बनी हैं, उन सबकी वर्णमालाका क्रम लग भग फ़िनीशियन क्रम ( अ-ब-ग - द ह आदि) से मिलता है, परन्तु पालीकी वर्णमालाका क्रम ( अ आ इ ई आदि ) वैसा नहीं है. फिनीशियन वर्गकी कोई वर्णमाला ऐसी सम्पूर्ण नहीं है, कि जिससे पाली लिपिके समस्त अक्षरोंके उच्चारण प्रकट किये जा सकें. इन प्रमाणोंसे प्रतीत होता है, कि पाली लिपि फिनीशियन या उससे निकली हुई किसी अन्य लिपिसे नहीं बनी, किन्तु आर्य लोगों की निर्माणकी हुई एक स्वतन्त्र लिपि है, जिससे भारतवर्षके अतिरिक्त सीलोन, जावा आदिकी और तिब्बतसे मंगोलिया तक मध्य एशिया की ( १ ) लिपियें बनी हैं. इस विषय में एडवर्ड टॉमस साहिब (२) लिखते हैं, कि पाली अक्षर भारतवर्ष के लोगोंने ही बनाये हैं, और उनकी सरलतासे उनके बनाने वालोंकी बड़ी बुद्धिमानी प्रकट होती है. ( १ ) वेबर साहित्र को कुगिअर स्थान से ( देखो पत्र पहिलेका नोट ४) जो त्रुटित मंस्कृत पुस्तक मिले हैं, उनमें से ४ पुस्तक भारतवर्षकी गुप्त लिपिके हैं, और ५ पुस्तक मध्य एशियाकी प्राचीन संस्कृत लिपिके हैं मध्य एशियाको प्राचीन लिपि यहांको लिपिसे मिलती हुई है, परन्तु अक्षरोंकी आकृति चौखंटी है, और कोई कोई अक्षर विलक्षण भी हैं. एक पुस्तक में अनुखारके हिन्दू दो दो हैं, और उसकी भाषा शुद्ध संस्कृत नहीं है, अर्थात् कितने एक शब्द संस्कृत हैं, और कितनेएक और हौ भाषाके हैं. ( एशियाटिक सोसाइटी बंगालका जर्नल, जिल्द ६२, हितह १, पृष्ठ ४ -८, प्लेट ३ ). (२) न्यूमिस्मैटिक क्रानिकल (सन १८६३ ई०, नम्बर ३ ), For Private And Personal Use Only
SR No.020558
Book TitlePrachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar Harishchandra Ojha
PublisherGaurishankar Harishchandra Ojha
Publication Year1895
Total Pages199
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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